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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
विद्यालय सहज ही चल सकता । तथापि इतना निश्चित है कि असली (ग्रामीण) भारत में ज्योति जगानेका जो श्रेय उन्हें है वह विश्व विद्यालय के संस्थापकोंको नहीं मिल सकता, क्योंकि वर्णीजी का पुरुषार्थं नदी, नाले और कूप जलके समान गांव, गांवको जीवन दे रहा है ।
वर्णीजीको दयकी मूर्ति कहना अयुक्त न होगा । उनके हृदयका करुणास्रोत दीन दुःखीको देखकर अवाधगति से बहता है । दीन या आक्रान्तको देखकर उनका हृदय तड़प उठता है । यह पात्र है या अपात्र यह बे नहीं सोच सकते, उसकी सहायता उनका चरम लक्ष्य हो जाता
है । यही कारण है कि नगद रुपया, चांदी के गहने तथा भरपेट भोजन करने वाले गृहस्थ भिखमंगे ने इनसे
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भोजन वसूल कर लिया और बादमें इनकी सरलतापर रीझ कर "केवल उपरी वेश देखकर ठगा न जाना” उपदेश दिया था । गो कि उसका उपदेश व्यर्थ ही रहा और लोग वेश बनाकर वर्णीजीको आज भी ठगते हैं, पर बाबाजी "कर्तु वृथा प्रणयमस्य न पारयन्ति ।" के अनुसार "अरे भइया हमें वो का ठगै जो अपने आपको ठग रहो ।” कथनको सुनते ही श्राज भी दयामय वर्णोंके विविध रुप सामने नाचने लगते हैं । यदि एक समय लुहारसे संडसी मांग कर लकड़हारिनके पैरसे खजूरका कांटा निकालते दिखते हैं तो दूसरे ही क्षण बहेरिया ग्राम के कुआंपर दरिद्र दलित वर्ग के बालकको अपने लोटेसे जल तथा मेवा खिलाती मूर्ति सामने आ जाती है, तीसरे क्षण मार्ग में ठिठुरती स्त्रीकी ठंड दूर करने के लिए लंगोटीके सिवा समस्त कपड़े शरीर पर से उतार फेकती श्यामल मूर्ति झलकती है, तो उसके तुरन्त बाद ही लकड़हारे के न्याय प्राप्त दो आना पैसों को लिए, तथा प्रायश्चित रुपसे सेर भर पक्वान्न लेकर गर्मी की दुपहरी में दौड़ती हुई पसीने से लथपथ मूर्ति आंखों के आगे नाचने लगती है । कर्रापुर के कुंएपर वणींजी पानी पी कर चलना ही चाहते हैं कि दृष्टि पास खड़े प्यासे मिहतर पर ठिठक जाती है। दया उमड़ी और लोटा कुएंसे भर कर पानी पिलाने लगे, लोकापवादभय मनमें जागा और लोटा डीर उसीके सिपुर्द करके चलते बने । स्थिति - पालन और सुधार का अनूठा समन्वय इससे बढ़कर कहां मिलेगा ?
" जो संसार विषै सुख होतो"
इस प्रकार विना विज्ञापन किये जब वर्णांजी का चरित्र निखर रहा था तभी कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिन्होंने उन्हें बाह्य त्याग तथा व्रतादि ग्रहण के लिए प्रेरित किया। यदि स्व ० ( सिंघैन चिरोंजा - ) बाईजीका वर्णीजी पर पुत्र स्नेह लोकोत्तर था तो वर्गीजीकी मातृश्रद्धा भी अनुपम थी । फलतः बाइजी के कार्यको कम करने के लिए तथा प्रिय भोज्य सामग्री लानेके लिए वे स्वयं ही बाजार जाते थे । सागर में शाक फलादि कूजड़िनें बेचती हैं। श्रौर मुहकी वे जितनी अशिष्ट होती हैं अचरणकी उतनी ही पक्की होती हैं । एक किसी ऐसी ही कूजड़िनकी दुकानपर दो खूब बड़े शरीफा रखे थे। एक रईस इनका मोल कर रहे थे और जड़नका मुंह मांगा मूल्य एक रुपया नहीं देना चाहते थे, आखिरकार ज्यों ही वे दुकान से आगे बढ़े
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