Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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माता
' अर्थ-एक क्षणमें रहनेवाले ज्ञानसे ऊपर बतलाया हुआ विशेष विज्ञान मत हो परन्तु उस ज्ञानसे उत्पन्न | त०TII || होनेवाले विशेष संस्कारसे विशेष ज्ञान हो जायगा ? सो भी ठीक नहीं। जो संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न हुआ।
है वह ज्ञानखरूप ही है। ज्ञानसे भिन्न नहीं इसलिये जिसतरह एक ज्ञान एक क्षणमें एक ही पदार्थ ग्रहण करता है उसीप्रकार संस्कार भी एक ही पदार्थको ग्रहण करेगा तथा जिसप्रकार एक ज्ञान एक क्षणमें अनेक पदार्थोंको ग्रहण नहीं करता उसीप्रकार संस्कार भी अनेक पदार्थों को ग्रहण न कर सकेगा। इस रूपसे जिस समय एक क्षणवर्ती ज्ञानसे "युतसिद्ध पदार्थों का संयोग संबंध और अयुतसिद्ध पंदा
थाँका समवाय संबंध यह" विशेष ज्ञान नहीं होता उसीप्रकार संस्कारसे भी न हो सकेगा । इसलिये || समवाय संबंध सिद्ध हो ही नहीं सकता । अथवा
___"कर्तृकरणयोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवदिति चेन्न । तत्परिणामादग्निवत्" 'यह 15 जो पहिले सूत्रकी पांचवी वार्तिक कह आये हैं उसका तात्पर्य यह है-वादीने जो यह शंका की है 18|| कि-जिसतरह 'देवदच फरसासे लकडी काटता है' यहां पर कर्ता देवदत्त और करण फरसा दोनों भिन्न म भिन्न पदार्थ हैं उसीप्रकार आत्मा ज्ञानसे पदार्थको जानता है। यहांपर भी आत्मा कर्ता और ज्ञान र
करण है इसलिए आत्मा और ज्ञानका भी भेद मानना चाहिये क्योंकि कता और करण मिन्न २ हुआ है | करते हैं ? सो नहीं। जिसतरह पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा दाह स्वभावसे अग्नि भिन्न है परन्तु वह
१ इस वार्तिकका पहिले जो अर्थ लिखा गया है वह द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे है क्योंकि वहां उष्णको ही अग्नि और ज्ञान दर्शनको ही प्रात्मा माना है। पर्यायोंकी कल्पना नहीं की। यहां पर पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे अर्थ है क्योंकि यहां पर दाहस्वभाव का ज्ञान स्वभावके उल्लेखसे अग्नि वा आत्मावों की पर्यायोंकी प्रधानता है। पहले अर्थसे यह भर्थ सुगम है इसलिये दूसरी तरहसे यह वार्तिकका अर्थ लिखा गया है।
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