Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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FORMA-CARCIBRARA-MIRPRILCOHORMER
। है कि यह इसका पिता और यह उसका पुत्र है किन्तु एक पुरुषने पिता देखा है दूसरेने पुत्र देखा है )
वहांपर एक पुरुष 'यह इसका पिता और यह उसका पुत्र है' यह नहीं बता सकता उसीतरह जिसके ६ मतमें युतसिद्ध-आपसमें जुदे हो जानेवाले और अयुतसिद्ध-आपसमें जुदे न हो सकने वाले पदार्थोंको ५ विषय करनेवाला एक ही ज्ञान है उसके मतमें अयुतसिद्ध पदार्थ आत्मा और ज्ञानादिका समवाय और हूँ
युतसिद्ध पदार्थ पुरुष और दंड आदिका संयोग संयोगसंबंध यह विशेष ज्ञान हो सकता है किन्तु युत है है सिद्ध पदार्थोंको जाननेवाला अन्य ज्ञान और अयुतसिद्ध पदार्थों को जाननेवाला अन्य ज्ञान होगा वहां है
पर वह विशेष नहीं बन सकेगा। नैयायिक और वैशेषिक मतमें पदार्थको विषय करनेके लिये ज्ञान सचा है 5 एक क्षण ही मानी है और एक ज्ञान एक ही पदार्थको विषय करता है, यह उनको इष्ट है तब उनके । . मतमें जो ज्ञान युतसिद्ध पदार्थको विषय करेगा वह अयुतसिद्धको नहीं कर सकता और जो अयुतसिद्ध
को विषय करेगा वह युतसिद्धको विषय नहीं कर सकता इसलिये उनके मतानुसार अयुतासिद्ध पदार्थों % हूँ का समवाय संबंध और युतसिद्ध पदार्थों का संयोग यह विशेष ज्ञान नहीं हो सकता। जब यह ज्ञान ही टू हूँ न होगा तब कोई भी संबंध नहीं सिद्ध होगा। विशेष
नैयायिक और वैशेषिकोंका यह सिद्धांत है कि ज्ञान प्रथम क्षणमें उत्पन्न होता है। द्वितीय क्षणमें 5 अर्थलाभ अर्थात् पदार्थोंको विषय करता है और तृतीय क्षणमें नष्ट हो जाता है इस प्रक्रियासे पदार्थों को है
विषय करनेकेलिये ज्ञानको एक दूसरा ही क्षण है। अनेक क्षण नहीं तथा वह ज्ञान एक क्षणमें एक ही ६ पदार्थको विषय करता है । यदि विशेष ज्ञान करनेकेलिये यह उपाय बतलाया जाय कि
संस्कारादिति चेन्न तस्यापि तादात्म्यात् ॥२०॥
PRECISRAELCREGASTRISADRASISAMAGISTRATISTIANE