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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
हृदयोद्गार
श्रद्धेय श्री प्रियदर्शन मुनि जी म. सा.
भगवान महावीर की वाणी ग्यारह अङ्गों के रूप में आज भी सुरक्षित है, यह हमारा सौभाग्य । यह वह वाणी है, जिसमें जन-जन के आत्म- जागरण, कल्याण और श्रेयस् के शाश्वत स्वर मुखरित है । यह वह वाङ्मय है, जो अतीत में मानव जाति के लिए अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हुआ । आज भी इसमें निरूपित सिद्धान्तों का अवलम्बन लेकर लोग सुख शांति का सही मार्ग प्राप्त कर सकते है। आज जबकि धर्म, अध्यात्म, नीति, सदाचार, ईमानदारी, प्रामाणिकता, सहृदयता जैसे उत्तमोत्तम मानवीय गुण मिटते जा रहे है, आगम निरूपित अहिंसा, सत्य, शौच, अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों के नितान्त प्रसार की आवश्यकता है । सत्य कभी पुरातन नहीं होता, त्रिकालवर्ती होता है, उसकी उपयोगिता भी त्रिकाल वर्तनी होती है । यह आगम एक ऐसा ही अमृतसाहित्य है, जो सदा सर्वदा जन-जन के उत्थान के पथ पर अग्रसर करने का विलक्षण सामर्थ्य रखता है ।
अपने अध्ययन क्रम के बीच अपने प्रातःस्मरणीय, परम पूज्य गुरुदेव स्व. आचार्य प्रवर श्री सोहनलाल जी म. सा. के सान्निध्य में उनके मुखारबिन्द से आगम तत्व श्रवण करने का मुझे अवसर मिलता रहा, जिससे मेरी आध्यात्मिक जिज्ञासा को न केवल बल ही मिला, समाधान भी मिलता रहा । उन्हीं पूज्य गुरुदेव श्री के असीम अनुग्रह, प्रयास और भावना के परिणामस्वरूप मुझे तथा वर्तमान संघनायक आचार्य प्रवर श्री सुदर्शनलाल जी म. सा. को भारत के ख्यातनामा विद्वान्, संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि प्राच्य भाषाओं एवं भारतीय भाषाओं के मूर्धन्यमनीषी डॉ. छगनलाल जी शास्त्री से अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। साहित्य, व्याकरण आदि अन्यान्य विषयों के साथ-साथ आगमों के अन्तर्गत सूत्रकृताङ्ग की शीलाङ्काचार्यकृत संस्कृत टीका का उनसे विशेष रूप से अध्ययन किया । शास्त्रीय रहस्यों के उद्घाटन, गम्भीर तत्वावगाहन तथा विवेचन विश्लेषण की दृष्टि से वास्तव में यह टीका अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसको पढ़ते समय हमारी पीपठिषा एवं जिज्ञासा को और अधिक बल मिला और आगमों के उत्तरोत्तर अध्ययन में रम जाने की प्रेरणा प्राप्त हुई ।
इसी का सुन्दर परिणाम यह आया कि ग्यारह अङ्गों पर लिखी गई संस्कृत टीकाओं के हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन की श्वे. स्था. जैन स्वाध्यायी संघ की ओर से योजना तैयार की गई । इससे हिन्दी जगत टीकाकारों के आगम विषयक गहन अध्ययन तथा चिंतन से लाभान्वित हो सकेगा ।
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उसी योजना के अन्तर्गत सूत्रकृताङ्ग की टीका के अनुवाद से कार्य प्रारम्भ किया गया । परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री सुदर्शनलाल जी म. सा. एवं विद्वद्वरेण्य डॉ. शास्त्रीजी की विशेष रूप से प्रेरणा रही कि इस अनुवाद कार्य में मैं भी साथ रहूँ, तदनुसार डॉ. शास्त्री जी के साथ मैं इस अनुवाद कार्य
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