Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १. जिणपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावजिणो। णोआगमभावजिणी उवजुत्तो तप्परिणदो त्ति दुविहो । जिणसरूक्परिछेदिणाणपरिणदो उवजुत्तभावजिणो । जिणपज्जायपरिणदो तप्परिणयभावजिणो।
एदेसु जिणेसु कस्स एसो कओ णमोक्कारो ? तप्परिणयभावजिणस्स ठवणाजिणस्स य । अणतणाण-दंसण-वीरिय-विरइ-खइयसम्मत्तादिगुणपरिणयजिणस्स णमोक्कारो कीरउ णाम, तत्थ देवत्तुवलंभादो। ण ठवणाए जिणगुणविरहियाए, तत्थ विग्यफलकम्मविणासणसत्तीए अभावादो त्ति ? तत्थेदं ताव संपहारेमो- ण ताव जिणो सगवंदणाए परिणयाणं चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसंगादो। ण सव्वेसिं पावमवहरइ, जिणणमोक्कारस्स विहलत्तप्पसंगादो । परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावो जिणगुणपरिणामो च पावपणास ति इच्छियव्वो, अण्णहा कम्मक्खयाणुववत्तीदो । सो वि जिणगुणपरिणामभावो जिणिदादो व्व अज्झारोवियाणतणाण-दसण-वीरिय-विरइ-सम्मत्तादिगुणाए अज्झाहारोवबलेणेव जिणेण सह एयत्तमुवगयाए ठवणाए वि समुप्पज्जइ त्ति जिणिंदणमोक्कारो व्व जिणट्ठवण
उपयुक्त जीव आगमभाव जिन है। नोआगमभाव जिन उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकार है। जिनस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे परिणत जीव उपयुक्तभावजिन है । जिनपर्यायसे परिणत जीव तत्परिणतभावजिन है।
शंका-इन जिनोंमें किस जिनको यह नमस्कार किया गया है ?
समाधान-तत्परिणतभाव जिन और स्थापना जिनको यह नमस्कार किया गया है।
शंका-अनन्त शान, दर्शन, वीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंसे परिणत जिनको भले ही नमस्कार किया जाय, क्योंकि, उसमें देवत्व पाया जाता है । किन्तु जिणगुणसे रहित स्थापनाकी अपेक्षा नमस्कार करना ठीक नहीं है, क्योंकि, उसमें विनोत्पादक कर्मोंके विनाश करनेकी शक्तिका अभाव है ?
समाधान- उक्त शंका होने पर यह परिहार करते हैं- जिन देव अपनी वन्दनामें परिणत जीवोंके ही पापके विनाशक नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर उनमें वीतरागताके अभावका प्रसंग आवेगा। न वे सब जीवोंके पापको नष्ट करते हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर जिननमस्कारकी विफलताका प्रसंग आता है । तब पारिशेषरूपसे जिनपरिणत भाव और जिनगुणपरिणामको पापका विनाशक स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना कर्मीका क्षय घटित नहीं होता। वह भी जिणगुणपरिणाम भाव जिनेन्द्रके समान अनन्त शान, दर्शन, वीर्य, विरति और सम्यक्त्वादि गुणों के अध्यारोपसे युक्त और अध्याहारके बलसे ही जिनके साथ एकताको प्राप्त हुई स्थापनासे भी उत्पन्न होता है। इसी कारण
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