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अपकरण 2. अनुपयुक्ताट पहुँचाना हानिकारक, कष्ट
अन्वासनम् [अनु+आस् + ल्युट] 1. सेवा, परिचर्या, पूजा । हास,-अपकरोति-बुरी तरह से या गलत ढंग से
2. दूसरे के पीछे आसनग्रहण करना 3. खेद, शोक। करता है (ग) विरोध, निषेध, प्रत्याख्यान-अपकर्षति अम्बाहार्यः (र्यम्), -र्यकम् [ अनु+आ+ह+ण्यत् अपचिनोति (घ) वर्जन-अपवह, अपस (प्रेर०),
स्वार्थे कन्] पितरों के सम्मान में अमावस्या के दिन 2. त० और ब. स. का प्रथम पद होने पर इसके किया जाने वाला मासिक श्राद्ध।
उपर्युक्त सभी अर्थ होते हैं-अपयानम्, अपशव्यः-एक अन्वाहिक (वि.) [स्त्री०-की] दैनिक, प्रतिदिन का। बुरा या भ्रष्ट शब्द,-भी निडर, अपरागः असन्तुष्ट अन्याहित-तु० अन्वाधेय ।
(विप० अनुराग), अधिकांश स्थानों पर 'अप' को अन्वित (वि.)[अनु++क्त] 1. अनुगत, अनुष्ठित, सहित,
निम्न प्रकार से अनूदित कर सकते हैं-'बुरा' घटिया' युक्त, 2. अधिकार प्राप्त, रखने वाला, आहत, प्रभा
'भ्रष्ट' 'अशुद्ध' 'अयोग्य' आदि 3. पृथक्करणीय अव्यय वित (करण के साथ या समास में) 3. संयुक्त, जोड़ा
(अपा० के साथ) के रूप में--(क) से दूर-यत्संहुआ, क्रमागत 4. व्याकरण की दृष्टि से संयुक्त।
प्रत्यपलोकेभ्यो लंकायां वसतिर्भवेत--भट्रि. ८1८७ सम-अर्थ (वि०)प्रकरण से ही जिसके अर्थ आसानी
(ख) के बिना, के बाहर-- अपहरे: संसार:-सिखा० से समझ में आ सकें,-अर्थवादः,-अभिधामवावः
(ग) के अपवाद के साथ, सिवाय--अप त्रिगर्तेभ्यो मीमांसकों का एक सिद्धांत जिसके अनुसार वाक्य में
वृष्टो देवः-सिद्धा०,---के बाहर, को छोड़कर, इन शब्दों का अर्थ सामान्य या स्वतंत्र रूप से नहीं होता,
वाक्यों में 'अप' के साथ कि० वि० (अध्ययीभाव बल्कि किसी विशेष वाक्य में एक दूसरे से संबद्ध होकर
समास) भी बनते हैं-'विष्णु संसार:-बिना विष्णु शब्द का जो अर्थ निकलता है, वही होता है। दे०
के, त्रिगर्तवृष्टो देवः-अर्थात् त्रिगत को छोड़कर अप काव्य० २, अभिहितान्वयवाद भी यही सिद्धान्त है।
निषेध और प्रत्याख्यान को भी जतलाता है.- काम, अम्बीयाणम्-क्षा [अनु+ईक्ष् + ल्युट, अच् वा] 1. खोज,
शंकम्। ढूंढना, गवेषणा 2. प्रतिबिंब ।
अपकरणम् [ अप+ +ल्युट ] 1. अनुचित रीति से कार्य अन्वीत तु० अन्वित ।
करना 2. अनुपयुक्त काम करना, चोट पहुंचाना, अम्बचम् (अव्य०) [प्रा० स०] एक ऋचा के पश्चात् दूसरी दुर्व्यवहार करना, कष्ट पहुँचाना। ऋचा।
अपकर्तृ (वि.) [अप+कृ+तच ] हानिकारक, कष्टअन्वेषः-षणम्-णा [अनु+इष+घा, ल्युट वा, स्त्रियां दायक, (पुं०--र्ता) शत्रु ।
टाप्] दृढना, खोजना, देखभाल करना-वयं तत्त्वा- अपकर्मन् [प्रा० स०] 1. ऋण से निस्तार 2. ऋणपरिशोध, न्वेषान्मधुकर हताः--श० ११२४, रंधान्वेषणदक्षाणां -----दत्तस्यानपकर्म च-मनु० ८।४, 2. अनुचित, द्विषां रघु० १२।११।।
अनुपयुक्त कार्य, दुष्कर्म, दुष्कृत्य 3. दुष्टता, हिंसा, अन्वेषक, अन्वेषिन्, अन्वेष्ट (वि०) [अनु+इष् -- ण्वुल्, उत्पीडन ।
णिनि, तृच् वा] ढूंढने वाला, खोजने वाला, पूछ ताछ | अपकर्षः [ अप+-कृष्-घा ] 1. (क) नीचे की ओर करने वाला।
खींचना, कम करना, घटाना, हानि, नाश-तेजोपकर्षः अप (स्त्री०) [आप् --क्विप-- हस्ता ] (परितिष्ठित -वेणी० १, ह्रास (ख) अनादर, अपमान (सभी अर्थों
भाषा में केवल ब. व० में ही रूप होते हैं.--यथा में विप० उत्कर्ष) 2. बास में आने वाले शब्दों का पूर्वआपः, अपः, अद्भिः, अद्भधः २, अपाम, अप्स, परन्तु विचार (व्या० काय और मीमांसा आदि में)। वेद में एक वचन और द्विवचन भी होते है) पानी, खानि अपकर्षक (वि.) [ अप-। कृष् वल | कम करने वाला लैव स्पशेदद्भिः ...मन्० २१६०, पानी बहुधा सष्टि । घटाने वाला, से निकालने वाला-दोषास्तस्य (काव्यके पांच तत्वों में सब से पहला तत्व समझा जाता है स्य) अपकर्षकाः-सा० द० १.। यथा--अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् --मनु० | अपकर्षणम् [ अप+कृष+ल्युट ] 1. दूर करना, खींचकर १२८, श०१११ परन्तु मनु० ११७८ में बतलाया गया दूर करना या नीचे ले जाना, वञ्चित करना, निकाल है...कि मन, आकाश, वायु और ज्योति अथवा अग्नि देना 2. कम करना, घटाना 3. दूसरे का स्थान ले के पश्चात् तेजस् या ज्योतिस से जलों की उत्पत्ति हई। लेना। सम-चरः जलचर, जलीय जन्तु, --पति: 1. जल अपकारः [अप- कृ--धन ] 1. हानि, चोट, आघात, का स्वामी वरुण 2. समुद्र, दूसरे समस्त पदों को शब्दों कष्ट (विप० उपकार) उपकारिणा संधिर्न मित्रेणाके अन्तर्गत देखो।
पकारिणा, उपकारापकारी हि लक्ष्यं लक्षणमेतयो:-- अप (अन्य)1.(धातु के साथ जड़कर इसका निम्नांकित अर्थ । शि०२१३७, अपकारोऽप्यपकारायैव संवृत्तः 2. दूसरे
होता है)---(क) से दूर, अपयाति अपनर्यात (ख) का बुरा चिन्तन, दूसरे को चोट पहुंचाना 3. दुष्टता,
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