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दा-"यादवपुरी से सुरिंग के नाांगदेवण्णा जी को बुलवा लिया जाय तो कैसा रहे?"
___ "आपके लड़के को उन बुजुर्ग के मार्गदर्शन की ज़रूरत है। वे तो वास्तव में ठीक व्यक्ति हैं परन्तु आपके लड़के की शक्ति इससे कमजोर हो जाएगी। यह ठीक नहीं। इससे सीमाप्रान्त की शक्ति ही कमजोर पड़ जाएगी।"
मरियाने ने फिर कहा, "बड़े चलिके नायक को बुलवा लें तो कैसा!" । ____ "अभी हाल के हमले के वक्त आखिरी दाँव में वह जख्मी हो गये। उम्र भी ज्यादा है और अब उन्हें विश्रान्ति की जरूरत है। उनका बेटा छोटे चलिके नायक अब वसुधारा प्रान्त में पिता के नाम से वहाँ की निगरानी कर रहा है। अब यह काम उनसे नहीं किया जा सकेगा। आप काफ़ी सोच-विचारकर ही बताइए। हम प्रधामजी से भी विचार-विमर्श करेंगे।" कहकर प्रभु एरेयंग में घण्टी बजायी।
नौकर ने परदा उठाया और बगल में खड़ा हो गया। मरियाने उठकर बाहर चले गये।
प्रधानजी से प्रभु एरेयंग ने आप्त मन्त्रणा की महाराज से भी निवेदन किया गया। अप्पाजी से भी विचार-विमर्श कर इस निर्णय के हानि-लाभ के विषय में विस्तार से विवरण देते हुए उसको समझा दिया गया। प्रधानजी से विचार-विमर्श करते समय मरियाने ने प्रधान को बताया...''इस नाम को मैं अपनी तरफ से सुझाता तो प्रभ समजतं कि मैं केवल उनको खुश करने के लिए सुझा रहा हूँ। चाहे जो हो, कुल मिलाकर सम्बन्धित लोगों के साथ सभी दृष्टियों से विचारविमर्श होने के बाद बलिपुर के हंग्गड़े मारसिंगय्या को दोरसमुद्र में बुलवाने का निर्णय हुआ। सिंगिमव्या को बलिपर हेग्गड़े के स्थान पर नियुक्त करने का निर्णय हुआ। इस परिवर्तन की खबर लेकर अगर रेविमच्या जाता तो पता नहीं कितना खुश हुआ होता। वह खुद प्रभु की सेवा में रहा। इसलिए किसी दूसरे के द्वारा राजाज्ञा बलिपुर में पहुँचा दी गयी।
हेग्गड़े मारसिंगय्या को इस विषय की सूचना मिल गयी परन्त हेग्गड़ती या शान्तला को यह सब मालूम नहीं था।
माचिकब्बे को यह मालूम था कि प्रभु का प्रियपात्र बनना बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। परन्तु दोरसमुद्र में उनके निवास होने पर आगे क्या सब हो सकता हैं इस बात की शंका भी उनके भीतर घर कर गयी थी। दण्डनायिका चामब्बे के व्यवहार में उसके सन्तोष को कम कर दिया था फिर भी सब-कुछ को अपने में ही समोये घुलते रहना उसका जैसे स्वभाव ही बन गया था। अब भी वही बात थी। राजाज्ञा का पालन मालिक को करना ही होगा। हमें तो केवल उनके साथ चलना है। हम तो उनके अनुगामी मात्र हैं। इस तरह की बातें मन में बुनते
38 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो