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प्राध्यात्मिक दृष्टि का विवेचन करते हुए पृष्ठ ८३ पर लिखा है
"शास्त्रीय दृष्टि के सिवाय एका दृष्टि प्राध्यामिक भी है । उसके द्वारा प्रात्मतत्व को लक्ष्य में रखकर वस्तु का विचार किया जाता है जो पात्मा के प्राप्रित हो उसे अध्यात्म कहते हैं। जैसे वेदान्ती ब्रह्म को केन्द्र में रखकर जगत के स्वरूप का विचार करते हैं व से ही मध्यात्म दृष्टि प्रात्मा को केन्द्र में रखकर विचार करती है । जैसे देदान्त में ब्रह्म ही परमार्थ सत् है और जगत मिथ्या है, वैसे ही प्रध्यात्म विचारणा में एक मात्र शुद्ध बुद्ध भात्मा हो परमार्थ सत् है और उसकी प्रत्य सब दशाए व्यवहार सत्य हैं। इसी से शास्त्रीन क्षेत्र में जैसे वस्तुतत्व का विवेचन द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों के इरा किया जाता है वैसे ही अध्यात्म में निश्चय भोर व्यवहार नय के द्वारा अात्मतत्व का विवेचन किया जाता है और निश्वय दृष्टि को परमायं और व्यवहार दृष्टि को अपरमार्थ कहा जाता है। क्योंकि निश्चय दृष्टि प्रात्मा के यथार्थ शुद्ध स्वरूप को दिखनाती है और व्यवहार दृष्टि अशुद्ध अवस्था को दिखलाती है । अध्यात्मी गुमुन शुद्ध प्रारमतत्व को प्राप्त करना नाहना है अतः उसकी प्राप्ति के लिये मब में प्रथम उमे उस दृष्टि को आवश्यकता है जो प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करा सकने में समर्थ है । ऐसी दृष्टि निश्चय दृष्टि है अतः मुमुक्षु के लिये वही दृष्टि भूतार्थ है। जिससे प्रारमा के प्रशुद्ध स्वरूप का दाम होता है. वह व्यवहार दृष्टि उरा के लिये कार्यकारी नहीं है पतः वह अमृतार्थ बही जाती है । इसी से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने नमयप्राभूत के प्रारम्भ में "वबहागे भूदत्यो भूदत्यो देसिदो य मुहाना' लिखकर व्यवहार को प्रभूतार्थ गोर शुद्धनाय प्रार्थात् निश्चय को भुनाथं वहा है।"
कून्दकुन्द रनामो ने समयसार और नियमप्तार में माध्यामिक दृष्टि से ग्ना-मस्वरूप वा विवेचन किया है अतः इन निश्चय नय और व्यवहार नय ये दो भेद ही दृष्टिगत होते हैं । वस्तुए अभिन्न प्रौर स्वाश्रित-परनिरपेक्ष कालिक स्वभाव को जानने वाला निश्चयनय है और अनेक भेदरूप वस्तु तथा उसके पराश्रित-परसापेक्ष परिणमन को जानने वाला नय व्यबहारनय है । यद्यपि अन्य प्राचार्यों ने निश्चयनय के शुद्धनिश्चयन और पशुद्ध निश्चयनय इस प्रकार दो भेद किये हैं तथा व्यवहार नय-के सद्भूत, असदभून, अनुपचरित पौर उपचरित के भेद से अनेक भेद स्वीकृत किये हैं। परन्तु कुन्द कुन्द स्वामी ने इन भेदों के चक में न पर मात्र दो भेद स्वीकृत किये हैं। अपने गुण पर्यायों से प्रभिन्न प्रात्मा के कालिक घात्मा के स्वभाव को उन्होने निचयनय का विषय माना है मौर कम के निमित्त से होने वाली प्रात्मा की परिणति को व्यवहारनम वा विप वहा है। निश्चयनय प्रात्मा में काम क्रोध, मान, मारा, लोम प्रादि विकारों को स्वीकृत नहीं करता । पूकि वे पुदगने के निमित्त से होते हैं प्रतः उन्हें पृदगम के मानता है । इसी तरह गुणस्थान तथा मार्गरणा प्रादि विकल्प जीव के स्वभाव नहीं हैं अतः निश्चय नम उन्हें स्वीकृत नहीं करता इन सबको मात्मा के कहना व्यवहारनय का विषय है। निश्चयनय स्वभाव को विषय करता है, विभाव को नहीं । जो स्त्र में स्वके निमित्त से सदा रहता है वह स्वभाव है जैसे जीव के शानादि, और जो स्व में पर के निमित्त से होते हैं वे विभाव हैं। जैसे जीव में क्रोधादि। ये विभाव, चू फि प्रात्मा में ही पर के