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को भले ही बकरी माने, परन्तु सच्चे सिंह को देखते ही उसमें विद्यमान सिंहत्व जाग उठता हैं । हमें भी प्रभु को देखकर अपनी प्रभुता प्रकट करनी है।
* दीक्षा अंगीकार करने के दो-तीन वर्ष पूर्व ही समाधि के बीज पड़ चुके थे । जिन भक्ति में तीन-चार घंटे व्यतीत करने के बाद अन्तिम एक घंटा आनन्द में व्यतीत होता, समाधि की झलक मिलती ।
- 'मा काली' का नाम सुनते ही रामकृष्ण परमहंस समाधिस्थ हो जाते । इतनी हद तक उन्होंने मां के साथ प्रेम बढा लिया था । यदि समाधि तक पहुंचना हो तो प्रभु के साथ प्रेम करो ।
* 'पातीति पिता' रक्षा करे वह पिता' भगवान हमारे पिता हैं, दुर्भावों से हमारी रक्षा करते हैं ।
* परमात्मा के गुणों का चिन्तन ऐश्वर्योपासना है ।
परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ना, प्रेम करना, माधुर्योपासना है। सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी ने शक्रस्तव में दोनों प्रकार की उपासना को स्पष्ट किया है।
शक्रस्तव में भगवान के २७५ विशेषणों का उल्लेख है। प्रत्येक विशेषण भगवान की अलग-अलग शक्ति को बताने वाले हैं ।
कित्तिय, वंदिय, महिया में प्रभु की नवधा भक्ति का समावेश है । मन को वश करने के लिए साधक अपनी रुचि एवं शक्ति के अनुसार किसी भी विहित मार्ग पर जा सकता है ।
* जिस स्तवन को बोलने में अत्यन्त ही आनन्द आये, मन स्थिर बने, रसमय बने उस स्तवन को कभी छोड़े नहीं । अनेक व्यक्ति मुझे पूछते है - 'प्रीतलडी बंधाणी रे..' स्तवन नित्य क्यों बोलते हैं ?
मैं कहता हूं, 'इस स्तवन में मेरा मन लगता है, मन आनन्दरस में सराबोर बनता है । अतः गाता हूं ।'
* पूर्णता है नहीं, फिर अभिमान क्यों ? अपूर्ण को अभिमान करने का अधिकार नहीं है, जबकि पूर्ण को तो अभिमान होता ही नहीं ।
* गोचरी लानेवाले साधु भी बिना बोले कइयों को धर्म
कहे
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