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ॐ ११ दीक्षा प्रसंग, भुज (कच्छ) । वि.सं. २०२८, माघ शु. १४., दि. २१-१-१९७२
९-१०-१९९९, शनिवार
आ. व. ३०
आलोचना, प्रश्न, पूजा, स्वाध्याय, अपराध की क्षमा - इन समस्त प्रसंगों पर गुरु का वन्दन आवश्यक है ।
गुरु-वन्दन विनय का मूल है । आत्म-शुद्धि के लिए यह आवश्यक है ।
आलोचना करें, परन्तु शुद्धिपूर्वक न करें । (जितनी तीव्रता से दोष किये हों, उतनी ही तीव्रता से आलोचना करनी चाहिये ।) तो संसार के परिभ्रमण में वृद्धि हो जाती है । महानिशीथ में यह दृष्टान्तपूर्वक उल्लेख किया गया है ।
कर्म का विनयन (विनाश) करे उसे विनय कहते है ।
मार्ग में चलते समय पांवों में कांटे लगे हों तो क्या आगे चला जा सकेगा ? कांटे निकालने के बाद ही चला जायेगा, उसी प्रकार से आलोचना के द्वारा दोषों के कांटे निकालने के बाद ही साधना के मार्ग पर आगे बढ सकते हैं । कयपावोऽवि मणुस्सो, आलोइय निंदिअ गुरुसगासे ।
होइ अइरेग लहुओ, ओहरिअ-भरुव्व भारवहो ॥
पापी व्यक्ति भी गुरु के पास पापों की आलोचना एवं निन्दा कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ३७५)