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भगवन् ! आपकी कृपा से ही मैं इतनी उच्च भूमिका पर पहुंचा हूं।
बाकी रही हुई भूमिका (सिद्धि) पर भी भगवान ही पहुंचायेंगे, ऐसी अटूट श्रद्धा होनी चाहिये ।
भगवान के प्रति ऐसी श्रद्धा का नाम 'सम्यग्दर्शन' है ।
. 'बस' का कण्डक्टर कहता है - 'कहां जाना है ? जहां जाना हो वहां की मैं टिकिट दूं । मुझे सिर्फ पैसे दीजिये ।' ____ 'आपको कहां जाना हैं ? मोक्ष में ?' भगवान कहते हैं - 'आपका अहंकार मुझे दे दीजिये ।'
पैसों का समर्पण करना सरल हैं, अहंकार का समर्पण कठिन है ।
- जिसका विवाह हो उसके गीत गाये जाते हैं । जिस समय जिस पद की प्रधानता हो उसे प्रमुखता दी जाती है । दर्शनपद के दिन दर्शन को, ज्ञान-पद के दिन ज्ञान को महत्त्व दिया जाता है । इसमें कोई अप्रसन्न नहीं होता । कान्तिलाल के गुण गाने पर शान्तिलाल नाराज हो सकता है लेकिन दर्शन के गुण गाने से ज्ञान या ज्ञान के गुण गाने से दर्शन नाराज हो, ऐसा कभी नहीं होता, क्योंकि अन्ततोगत्वा सब एक ही है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र तीनों साथ मिलकर ही मोक्ष-मार्ग बनता है। तीनों अलग अलग होने पर मोक्ष-मार्ग नहीं बनता । घी, गुड़ और आटा तीनों के मिलने से ही 'सीरा' बन सकता है। एक का भी अभाव होने पर राबडी अथवा कूलर बन सकता है, परन्तु 'सीरा' नही बन सकता ।
ज्ञानपद के दर्शन एवं ज्ञान दोनों जुड़वां प्रेमी भाई है। एक को आगे करो को पिछला नाराज नहीं होता । दर्शन-ज्ञान दोनों पैर हैं । एक आगे रहे तो दूसरा स्वयं पीछे रह जाता है । क्रमशः वे एक-दूसरे छोटे-बड़े होते जाते हैं ।
दोनों को जुडवां भाई इसलिए कहता हूं कि दोनों का जन्म साथ ही होता है । सम्यक्त्व आते ही अज्ञान ज्ञान बन जाता है और मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन बन जाता है ।
कहे
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