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इस अवस्था में योगी स्व आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं । फिर लगता है कि अपने से शरीर जितना समीप है, उससे भी अधिक समीप परमात्मा है ।
पर शरीर को हम अपना मान बैठे हैं । अपने प्रभु को हम पर मान बैठे हैं ।
भगवान सात राजलोक दूर नहीं है, यहीं हैं, अपना ही स्वरूप है, ऐसा भान तब आता है।
. जो अन्तरात्म-दशा प्राप्त करता है वही परमात्म – दशा प्राप्त कर सकता है । परमात्म - दशा का सर्टिफिकेट (प्रमाणपत्र) है, अन्तरात्म-दशा । यह जिसके पास हो वही परमात्मा बन सकता है।
* वृत्ति दो प्रकार की है: (१) मनोवृत्ति, (२) स्पंदनरूपवृत्ति । (१) मनोवृत्ति : बारहवे गुणस्थान पर जाती है । (२) स्पंदनवृत्ति : चौदहवे गुणस्थान पर जाती है ।
चौदहवे गुणस्थान पर अयोगी, अलेशी एवं अनुदीरक भगवान होते हैं ।
- नवपद में पांच परमेष्ठी गुणी एवं ज्ञान आदि चार गुण
. नवपद का बहुमान करना अर्थात् सर्वोत्कृष्ट गुणी एवं सर्वोत्कृष्ट गुणों का बहुमान करना । नवपद का तीनों योगों से बहुमान होना चाहिये।
_मन, वचन का बहुमान तो समझे, परन्तु काया से बहुमान किस प्रकार होता है ? उन गुणों को जीवन में अपनाने से बहुमान होता है ।
. नवपदों का ध्यान हमें नवपदमय बनाता है। एक बार आत्मा उसमें रुचि लेने लगे तो प्रत्येक जन्म में नवपद मिलेंगे । उदाहरणार्थ - मयणा - श्रीपाल ।
* कुसंस्कार यदि प्रत्येक भव में साथ आते हों तो सुसंस्कार साथ क्यों नहीं आये ? यदि आप सुसंस्कारों का स्टोक नहीं रखोगे तो कुसंस्कार तो आयेंगे ही । वे तो भीतर विद्यमान ही हैं ।
नवपद समस्त लब्धियों एवं सिद्धियों का घर है। उन्हें अन्तर में बसाओ तो समस्त लब्धियां एवं सिद्धियां आपके हाथ में हैं ।
कहे।
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