Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 628
________________ ५. अपादान - आत्मस्वरूप का अवरोध । क्षायोपशमिक गुणों की हानि होना, स्वरूप से अलग होना । ६. आधार - ऐसी अनन्त अशुद्धियों का आश्रयस्थान आत्मप्रदेश । इन कारक शक्तियों का कार्य अनादिकाल से चल रहा है। हमारी ही कारक शक्तियां हमारी ही हानि कर रही हैं । 'स्व-गुण आयुध थकी कर्म चूरे, असंख्यात गुणी निर्जरा तेह पूरे; टले आवरणथी गुण विकासे, साधना शक्ति तिम तिम प्रकाशे' ॥ २९ ॥ छःओं कारक सर्व प्रथम भगवन्मय बनें तब सब बदलने लगता है । इससे स्वगुणरूपी शस्त्र उत्पन्न हुए । ये शस्त्र कर्मों का क्षय कर डालते हैं । फिर तो साधक असंख्यगुनी निर्जरा करता रहता है । प्रतिक्षण निर्जरा का प्रकर्ष बढता रहता है । ध्यान में ज्ञान-दर्शन-चारित्र एक बन जाते हैं। कोई भी कार्य जीव करता है तब समस्त शक्तियां एक साथ कार्य करने लगती हैं । चाहे वह कार्य शुभ हो अथवा अशुभ । आत्म-प्रदेशों में कभी अनेकता नहीं होती । सब साथ मिल कर ही कार्य करते हैं । मिथ्यात्व के समय ज्ञान आदि शक्तियां मिथ्याज्ञान आदि शक्तियां कहलाती हैं । समकित की उपस्थिति में वे सम्यग्ज्ञान आदि शक्तियां कहलाती हैं । . पू. देवचन्द्रजी अभ्यासी उदार पुरुष थे । स्वयं खरतरगच्छीय थे फिर भी तपागच्छीय उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा कृत ज्ञानसार पर ज्ञानमंजरी टीका रची है, उस समय तपागच्छीय जिनविजयजी के शिष्य उत्तमविजयजी को उन्होंने विशेष आवश्यक, अनुयोगद्वार आदि पढाये हैं । . परसों भद्रगुप्तसूरिजी का अहमदाबाद में कालधर्म हुआ । हमारे पूर्व परिचित थे । हिन्दी-गुजराती साहित्य के बड़े सर्जक थे । उनके ग्रन्थ आज भी लोग प्रेम से पढते हैं । अभी कुछ समय पूर्व हम अहमदाबाद में उन्हें मिल भी आये । उनकी आत्मा जहां हो वहां समाधि प्राप्त करे, परम पद को समीप लाये । ५७६ ****************************** **** कहे कलापूर्णसूरि - १) कहे'

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