Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 638
________________ द्रव्यथी एक चेतन अलेशी, क्षेत्रथी जे असंख्य प्रदेशी उत्पात-नाश-ध्रुव काल धर्म, शुद्ध उपयोग गुणभाव शर्म ॥ ४१ ॥ द्रव्य से एक चेतन लेश्यारहित है । क्षेत्र से आत्मा असंख्य प्रदेशवाली है । काल से उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त है । भाव से शुद्ध उपयोग में रमण करनेवाली है। प्रश्न - आत्मा में उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य कैसे घटित होते उत्तर - आत्मा में अभिनव पर्याय की उत्पत्ति होती है, पूर्व पर्याय का नाश होता है और ज्ञान आदि से आत्मा ध्रुव (शाश्वत) है। निश्चय से हमारा रहने का स्थान हमारी आत्मा ही है। स्थान हेतु झगड़े होने की सम्भावना उत्पन्न हो तब यह वास्तविकता याद करें । सादि अनन्त अविनाशी अप्रयासी परिणाम, उपादान - गुण तेहिज कारण - कार्य - धाम; शुद्ध निक्षेप चतुष्टय जुत्तो रत्तो पूर्णानंद केवलनाणी जाणे जेहना गुणनो छंद ॥ ४२ ॥ एहवी शुद्ध सिद्धता करण ईहा, इन्द्रिय सुखथकी जे निरीहा; पुद्गली भावना जे असंगी, ते मुनि शुद्ध परमार्थ रंगी ॥ ४३ ॥ ऐसी शुद्ध सिद्धता मेरी कब प्रकट हो ? ऐसी रुचि जगे तो हमारी साधना सच्ची । इस रुचि के लिए इन्द्रियों के सुख पर निःस्पहता रखे, पौद्गलिक भावों से दूर रहे वही मुनि वास्तव में मुनि है । स्याद्वाद आत्मसत्ता रुचि समकित तेह, आत्म धर्मनो भासन, निर्मल ज्ञानी जेह; आत्म रमणी चरणी ध्यानी आतम लीन, __ आतम धर्म रम्यो तेणे भव्य सदा सुख पीन ॥ ४४ ॥ ५८६ ****************************** कहे

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