Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 637
________________ यह सब स्वाद हम चख चुके हैं, परन्तु आत्मा के सुख का स्वाद कभी नहीं चखा । इसी कारण से सिद्धों के सुख की हम कल्पना भी नहीं कर सकते । हमने तो आसक्ति को सुख मान लिया है जो सचमुच, दुःख ही है । जितनी अधिक आसक्ति करते हैं, उतने अधिकाधिक चिकने कर्मों का बन्ध होता है, जिसे हम सर्वथा भूल गये हैं। इसीलिए साधक स्वाद लिये बिना भोजन करता है । जैसे सांप बिल में प्रविष्ट होता है, उस प्रकार कौर (ग्रास) मुंह में जाता है । उसे यह ध्यान तक नहीं रहता कि चाय में नमक है कि शक्कर ? साधक में इतनी अन्तर्मुखता होती है । इन्द्रियों के सभी सखों को एकत्रित करके उनके अनन्त वर्ग किये जायें, तो भी वे सिद्ध के अनन्त वर्गहीन एक आत्म-प्रदेश के सुख की भी तुलना नहीं कर सकते । संसार का सुख कृत्रिम है । यह सहज है, यही बड़ा फरक है । ऐसा सुख सुनने से लाभ क्या ? अतः अपने भीतर ही ऐसा सुख विद्यमान है ऐसा प्रतीत हो ताकि उसे प्राप्त करने की तीव्र रुचि उत्पन्न हो जाये, यही बड़ा लाभ है । कर्ता कारण कार्य निज परिणामिक भाव, ज्ञाता सायक भोग्य भोक्ता शुद्ध स्वभाव; ग्राहक रक्षक व्यापक तन्मयताए लीन, पूरण आत्म धर्म प्रकाश रसे लयलीन ॥ ४० ॥ सिद्ध शुद्ध स्वभाव के भोक्ता होते हैं, प्रकाश रस में लीन होते हैं। सिद्धों को वहां करना क्या है ? वैशेषिक दर्शन मुक्त को जड़ मानता है ।। उसकी हंसी उडाते हुए किसीने कहा है - 'वृन्दावन में सियार बनना अच्छा, परन्तु वैशेषिक की मुक्ति अच्छी नहीं ।' जैन दर्शन की मुक्ति ऐसी जड़ नहीं है। वहां अभाव नहीं है, परन्तु आत्म-शक्तियों का सम्पूर्ण विकास है। वहां जड़ता नही है, परन्तु पूर्ण चैतन्य की पराकाष्ठा है। . कहे कलापूर्णसूरि - १ १******************************५८५

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