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भगवान के समीप रहने वाले कालिया कसाई आदि कुछ प्राप्त नहीं कर पाये, दूर रहनेवाले कुमारपाल आदि ने प्राप्त करने योग्य प्राप्त कर लिया, क्योंकि समीप रहनेवाले कसाई में बहुमान नहीं था । कुमारपाल में बहुमान था ।
साक्षात् भगवान के विरह में भगवान के नाम तथा रूप में भक्त साक्षात् भगवान को ही देखता है । प्रश्न केवल बहुमान का ही है ।
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✿ मैं लोभी तो हूं ही । लोभ अभी तक गया नहीं है । मैंने अध्यात्म गीता अच्छी तरह कण्ठस्थ कर ली है । अभी तक याद है । मुझे यह भी लोभ है कि दूसरे व्यक्ति भी इसे कण्ठस्थ कर लें । मुझ पर जो उपकार हुआ है, वह उपकार दूसरे व्यक्तियों पर भी हो, ऐसा लोभ है सही ।
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✿ बचपन में फलोदी में सर्व प्रथम 'अध्यात्म कल्पद्रुम' पुस्तक उदयराजजी कोचर के घर से मिली थी । गुजराती में होते हुए भी मैंने उसे पढने का प्रयत्न किया । आनन्द आया ।
✿ अब तक छः कारक बाधक बने हुए हैं । अब उन्हें साधक कैसे बनाया जाये ? यह कला हमें सीखनी हैं ।
पू. देवचन्द्रजी द्वारा रचित मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रत स्वामी के स्तवनों में यह कला दिखाई गई है । अवसर पर आप देखना । जब तक शरीर आदि का कर्तव्यभाव हम मानते हैं, तब तक छ:ओं कारक उल्टे ही चलेंगे । 'मैं अपने ज्ञान आदि गुणों का कर्ता हूं' ऐसा अनुभूतिजन्य ज्ञान होते ही बाधक कारकचक्र साधक बनने लगता है ।
✿ प्रत्येक नया वैज्ञानिक पूर्व वैज्ञानिकों द्वारा किये गये संशोधनों के आधार पर आगे बढता है। उसका इतना श्रम बचता है । योगियों को ज्ञानी एव अनुभवियों के आधार पर आगे बढना है । उनके अनुभव की पंक्तियां हमारे लिए 'माईल स्टोन' बनती हैं ।
✿ ज्ञानियों के कथन का रहस्य समझने के लिए उनके प्रति बहुमान होना आवश्यक हैं। पं. मुक्तिविजयजी यहां तक कहते कि आप जिस ग्रन्थ का अध्ययन कर रहे हों, उसके कर्ता की एक माला जब तक ग्रन्थ पूरा न हो जाये तब तक नित्य गिनें । ***** कहे कलापूर्णसूरि
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