Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 633
________________ उसके स्वाद में भी व्यापक बनती है और शान्तरसमयी मूर्ति में भी व्यापक बनती है । चेतना कहां लगानी वह हमें सोचना है । 'धर्मध्यान इकतानमें ध्यावे अरिहा सिद्ध, ते परिणतिथी प्रगटी तात्त्विक सहज समृद्ध; स्व स्वरूप एकत्वे तन्मय गुण पर्याय, ध्याने ध्यातां निर्मोहीने विकल्प जाय' ॥ ३४ ॥ दादरा चढने के बाद ही उपर की मंजिल पर जा सकते हैं, उस प्रकार धर्म-ध्यान के बाद ही शुक्ल ध्यान हो सकता है । शुक्ल ध्यान के दो पायों में धर्मध्यान का भी अंश होता है, यह भूलने योग्य नहीं है। निर्विकल्प में जाने से पूर्व शुभ विकल्प का आश्रय लेना ही पड़ता है। यदि शुभ विकल्प का आश्रय नहीं लें तो अशुभ विकल्प आयेंगे ही । इसी कारण से मैं जैसा-तैसा पढने का इनकार करता हूं । जो कुछ भी पढ़ें-सोचें, उसके पुद्गल हमारे आसपास घूमते ही रहते हैं । हम उनकी पकड़ में तुरन्त ही आ जाते हैं । जो जो पढते हैं, सोचते हैं, अवगाहन करते हैं उन सब के संस्कार हमारे भीतर पड़ेंगे ही । . सविकल्प और निर्विकल्प दो प्रकार की समाधि हैं । निर्विकल्प - अपना घर है । सविकल्प - मित्र का घर है । अशुभ विकल्प - शत्रु का घर है । शत्रु के घर में क्या होता है वह आप समझ सकते हैं । शत्रु का घर समृद्ध हो ऐसा कोई कार्य करेगा ? अशुभ विकल्पों की वृद्धि हो वैसा पठन आदि करके हम शत्रु का घर तो समृद्ध नहीं करते हैं न ? 'यदा निर्विकल्पी थयो शुद्ध ब्रह्म, तदा अनुभवे शुद्ध आनन्द शर्म; भेद रत्नत्रयी तीक्ष्णताये, अभेद रत्नत्रयीमें समाये' ॥ ३५ ॥ कहे क '-१******************************५८१

Loading...

Page Navigation
1 ... 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656