Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 627
________________ * यदि अपनी ही आत्मा ही हम नहीं जान सकें तो क्या जानेंगे ? क्या हमारी द्रव्य क्रियाएं हमें मोक्ष दे देंगी ? यद्यपि क्रियाएं निरर्थक नहीं हैं। अकेला ध्यान उपयोगी नहीं होता । क्योंकि दिनभर ध्यान नहीं हो सकता । ध्यान करने के अतिरिक्त समय में क्रिया उपयोगी होती है । क्रिया छोड़कर जो ध्यान में ही जुड़ने का प्रयत्न करता है, वह ध्यान को तो पाता नहीं, परन्तु क्रिया से भी भ्रष्ट हो जाता है । . भुज के एक अजैन भाई ने 'मैं परिवार को सन्तुष्ट नहीं कर सकता' आदि कहकर ध्यान की उंची बातें की । मैंने कहा, 'आप इस समय कहां हैं ? यह देखो; कर्तव्य निभाओ, फिर उसके फल स्वरूप ध्यान मिलेगा । कल ही वह पुनः आया और बोला, 'महाराज ! अब आनन्द - आनन्द हो गया ।' • आप जानते हैं - दस पूर्वी के लिए जिनकल्प स्वीकार करने का निषेध हैं ? किस लिए ? क्योंकि वे गच्छ पर बहुत ही उपकार कर सकते हैं । यही बात अमुक अंशों में अन्यत्र भी लागू पड़ सकती है। . कल के षट्कारक चक्र आत्मा में घटित करें । १. कारक - द्रव्य-भावकर्म करने वाली आत्मा स्वयं कारक है। कर्म-बन्धन का यह कार्य चौबीसों घण्टे चालु ही है क्योंकि जीव में कर्तृत्व आदि शक्तियां खुली ही हैं । इन शक्तियों को विभाव से रोक कर जब तक स्वभावगामी न बनायें, तब तक मोक्ष तो क्या सम्यक्त्व भी प्राप्त नहीं होगा । कर्म बाद में ही कटेंगे । यद्यपि प्रयत्न तो बाद में भी करना ही पड़ता है ।। नाखून काटने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है तो प्रयत्न किये बिना कर्म कैसे कट सकते हैं ? २. कर्म - द्रव्य - भाव कर्म का बन्धनरूप कार्य । ३. करण - भावाश्रव - अशुद्ध भाव परिणति । प्राणातिपात आदि द्रव्याश्रव । ४. सम्प्रदान - नई अशुद्धता से नये कर्मों का लाभ हो वह । कहे कलापूर्णसूरि - १ ******** १******************************५७५

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