________________
संसार का मूल केवल एक ही प्रकार में बताना हो तो असंयम, अविरति है। इनसे अब तक जीव ने कर्मों का ही संग्रह किया है।
बालक कंकड़ों का संग्रह करता है, उस प्रकार स्वर्ण-चांदी एकत्रित करनेवाला भी ज्ञानी की दृष्टि में बालक ही हैं । केवल रंग में अन्तर है । ज्ञानी की दृष्टि में स्वर्ण अर्थात् पीले कंकड़, चांदी अर्थात् श्वेत कंकड़ । व्यक्ति चाहे जितना बड़ा बन जाय परन्तु यदि वह जिन-वचन नहीं समझता तो बच्चा ही रहेगा, केवल उसके खिलौने बदलेंगे, उसकी वृत्तियां नहीं बदलेंगी । कंकड़ों से खेलनेवाला बालक वयस्क होकर पीले कंकड़ों से खेलता है। इसमें तात्त्विक फरक कहां पड़ा? खिलौनों का प्रकार ही बदला, उसके भीतर बैठा हुआ 'बालक' नहीं बदला ।
. तप्त लोहे पर चलने में जितना कष्ट होता है उतना ही कष्ट संवेगी जीव को हिंसा आदि पाप करने में होता है । कच्चे पानी पर या वनस्पति पर चलने में उसे तप्त लोहे पर चलने जैसा लगता है।
. आज मैं सभी साधु-साध्वियों को वासक्षेप डालूंगा, परन्तु गृहस्थ गुरु-पूजन करते हैं उस प्रकार आप क्या करेंगे ? आप कोई न कोई अभिग्रह ग्रहण करके संयम जीवन को सुशोभित करें; परिग्रह का बोझ कम हो, ऐसा कुछ करें ।
हमारे गुरुदेव पू. कंचनविजयजी कालधर्म को प्राप्त हुए तब उपकरणों में केवल संथारिया एवं उत्तरपट्टा ही थे। वे सर्वथा फक्कड़ थे ।
जिसके पास 'बोक्स' कम है, उसका 'मोक्ष' शीघ्र होगा, यह याद रहे ।
अध्ययन का भी अभिग्रह लिया जा सकता है ।
शान्तिनगर, अहमदाबाद में एक साध्वीजी ने 'ग्यारह हजार, एकसौ ग्यारह' श्लोक कण्ठस्थ करने का अभिग्रह किया था, फिर एक वर्ष में पूर्ण करके पूरी सूची हमें भेजी थी ।
__आत्मा का नैश्चयिक स्वरूप हम 'संथारा पोरसी' के समय नित्य बोलते हैं ।
___ 'एगोहं नत्थि मे कोई ।' अकेले आये हैं, अकेले जायेंगे, मरते समय कौन साथ
****** कहे कलापूर्णसूरि - 3
५३०
******************************
कहे