Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 613
________________ उत्कृष्ट स्तर का विनियोग करनेवाले को धर्मराजा भगवान बनाते हैं । विनियोग अल्प मात्रा में होता जाये त्यों त्यों उसे गणधर, युगप्रधान आचार्य आदि पद देते हैं । अध्यात्म गीता 'चेतन अस्ति स्वभावमां, जेह न भासे भाव, तेहथी भिन्न अरोचक, रोचक आत्म स्वभाव; समकित भावे भावे, आतम शक्ति अनन्त, कर्म-नाशन चिन्तन, नाणे ते मतिमंत.' ॥ २४ ॥ * ज्ञान-ध्यान में मस्त अप्रमत्त मुनि मोह से नहीं डरते, कर्म से नहीं डरते, कोई दुर्भावना उत्पन्न करने की शक्ति उन कर्मों में नहीं होती । उल्टे वे कर्म मुनि से डरते है : कब यहां से भाग जायें । इस दशा में विभाव दशा से अरुचि, आत्म-स्वभाव की ही रुचि होती है । . आत्मप्रदेश में कर्म एवं गुण दोनों हैं । एक अस्ति स्वभाव से, दूसरे नास्ति स्वभाव से हैं । कर्म संयोग सम्बन्ध से वस्त्र की तरह हैं । गुण समवाय सम्बन्ध से चमड़ी की तरह है । गुण अस्ति स्वभाव से और कर्म नास्ति स्वभाव से है । सत्ता में गुण अनादिकाल से हैं, उस प्रकार कर्म भी अनादिकाल से हैं । परन्त दोनों के संयोग में अत्यन्त फरक है । परिवारजनों में एवं नौकरों में फरक तो होगा न ? वस्त्र में मैल भी है और तन्तु भी हैं, फरक है न ? कर्म मैल है, गुण तन्तु है । कर्म नौकर हे, गुण परिवार-जन हैं । हम गुणों को, परिवार-जनों को निकालते है और उद्धत नौकरों को (दोषों को) निकालने के बदले उन्हें थपथपाते हैं । . डोकटर को पूछे बिना अपने आप दवा लेकर रोगी नीरोगी नहीं बन सकता, उस प्रकार गुरु के बिना अपने आप शिष्य भाव रोग से मुक्त नहीं हो सकता । कहे कलापूर्णसूरि - १ ****** १******************************५६१

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