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आप भगवान की आज्ञा का पालन कर रहे हैं जिसका गुरु विश्वास दिला सकते हैं । गुरु आगमानुसारी ही होते हैं ।
यह सब तथाभव्यता की परिपक्वता से ही होता है । इसके लिए चतुःशरणगमनादि के लिए हमें ही प्रयत्न करना पड़ता है ।
. वैराग्य आदि गुणों से तथाभव्यता की परिपक्वता ज्ञात होती है।
मुमुक्षु में सर्वप्रथम वैराग्य चाहिये । उसके प्रति ज्यादा मोह में न फसें । आज का मुमुक्षु आपका शिष्य तो नहीं बनेगा, कहीं गुरु न बन बैठे, यह ध्यान रखना, केवल बुद्धि न देखकर उसकी परिणति देखें ।
. रत्नों का हार बनाना हो तो छिद्रों में होकर डोरा पिरोना चाहिये । यहां भी कर्म में छिद्र (ग्रंथिभेद) पड़ना चाहिये, तो ही गुण-रत्नों की माला बन सकती है ।
. ग्रंथिभेद का पदार्थ कथा के माध्यम से समझना हो तो सिद्धर्षि रचित 'उपमिति' ग्रन्थ का प्रथम प्रस्ताव पढें । अद्भुत वर्णन हैं ।
__इक्कीस बार बौद्ध भिक्षु बनने के लिए तत्पर सिद्धर्षि गुरु के आग्रह से बार-बार रुक जाते थे । अन्त में 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ पढने से उनकी आत्मा जागृत हो गई; वीतराग प्रभु की अनन्त करुणा प्रतीत हुई । बुद्ध की करुणा फीकी लगी ।
पं. व्रजलालजी उपाध्याय : 'विषं विनिर्धूय कुवासनामयं, व्यचीचरद्यः कृपया ममाशये । अचिंत्यवीर्येण सुवासना - सुधां, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥'
'कुशास्त्रों के विष को नष्ट करके जिन्होंने मेरे अन्तःकरण में अचिन्त्य शक्ति से सुसंस्कारों का अमृत भरा, उन हरिभद्रसूरि को नमस्कार हों ।'
- न्यायावतार टीका के मंगलाचरण में सिद्धर्षि पूज्यश्री : ये हमारे जामनगर के पंडितजी हैं । देखने आये हैं कि हमारे विद्यार्थी कैसे हैं ?
- भगवान ही चारित्र आदि के दाता हैं, मोक्षदाता है - यह बात सिद्धर्षि को हरिभद्रसूरि रचित 'ललित विस्तरा' के द्वारा
**** कहे कलापूर्णसूरि - १
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