Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 624
________________ • आज तक पुद्गल का, अर्थ-काम का रस था, वह, दीक्षा ग्रहण करने पर छूट गया, परन्तु यहां पुनः नया सांसारिक कहा जा सके वैसा रस तो उत्पन्न नहीं हुआ न ? वह देखें । ये समस्त रस तोड़ने हों तो रत्नत्रयी का रस उत्पन्न करना पड़ता है। ज्ञान एवं क्रिया का चक्र ऐसा प्रबल है जो मोहराजा का सिर काट डालेगा । मोहराजा के नष्ट होते ही समस्त अपाय दूर होते हैं, चेतन राजा विजयी होता है। कुमारपाल ने जिस प्रकार अर्णोराज को परास्त किया, उस प्रकार चेतन मोहराजा को परास्त करता है । जैसे चक्रवर्ती के पास शत्रु-संहारक चक्र होता है, उस प्रकार चेतन के पास भी कारक-चक है । कारक-चक्र से (षट्कारकचक्र) मोह की सेना धराशायी हो जाती है, तब कर्ता-कारण एवं कार्य तीनों एक हो जाते हैं । षट्कारक चक्र के बिना कोई भौतिक कार्य भी नहीं हो सकता तो आध्यात्मिक कार्य की तो बात ही क्या करनी ? इस समय भी हम षट्कारक चक्र से ही व्यवहार चला रहे षट्कारक-शक्ति खुली हुई है। उस पर कोई कर्म का आवरण नहीं है । यदि उस पर भी कोई कर्म का आवरण होता तो कर्मबन्धन ही नहीं होता । यह कारक-चक्र केवल जीव के पास ही इन छ: में कारक मुख्य है । शेष पांच उसके अधीन है। पू. देवचन्द्रजी महाराज का यह मुख्य विषय है। उन्होंने अपने स्तवन में इस विषय का अत्यन्त ही रसपूर्ण वर्णन किया है । इसी कारण उनके स्तवन कण्ठस्थ करने का मैं आग्रह रखता हूं। इस समय हमारे छ:ओ कारक कर्म-बन्धन का ही कार्य कर रहे हैं । घर के लोग भूखें मरें और कोई आदमी दूसरों के लिए कमाई करे, तो उसे हम कैसा कहेंगे? अपना चेतन ऐसा ही करता है । अपनी ही शक्तियों के द्वारा हम कर्म का कार्य कर रहे हैं। ___ 'घर के लोग चक्की चाटें और उपाध्याय को आटा देना ।' यह क्या ठीक है ? ५७२****************************** कह

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