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अन्नेसिं पवज्जाहि अन्य को देना । गुरुगुणेहिं वुड्डिज्जाहि महान गुणो से वृद्धि प्राप्त करना । नित्थारपारगा होह संसार से पार उतरना ।
प्रदक्षिणा देते समय शिष्य के संचार पर से गुरु उसका भविष्य देखते हैं कि उसके कदम किस ओर जा रहे हैं ? उससे ही उसका भविष्य जाना जा सकता है ।
बड़ी दीक्षा के बाद भी परिणत हो तो ही मांडली में प्रवेश दिया जा सकता है, अन्यथा नहीं ।
व्रत-पालन के उपाय :
व्रत तो दे दिये परन्तु व्रतों की रक्षा कैसे करें - यह भी महत्त्वपूर्ण बात है । पुत्र को दुकान तो सौंप दी, परन्तु सौंपने के बाद उसे कैसे संभालना, यह भी सिखाना पड़ता है।
गमन, शयन, आसन, आहार, स्थंडिल, समिति, भावना, गुप्ति, चैत्य इत्यादि साधु व्यवहार के विषय में व्यवस्थितरूप से गुरु समझाये ।
अध्यात्म गीता
दूसरे के प्राण बचाना दया कहलाती है उस प्रकार उसके गुण बचाना भी महान् दया कहलाती है ।
उदाहरणार्थ - कोई आवेश में आने के कारण आत्म-हत्या करने जाता हो, तो उसे समझायें - 'भले आदमी ! ऐसा किया जाता है ? क्या ये जीवन नष्ट करने के लिए हैं ? उसके आवेश का शमन करना भी भाव-दया है । ___ये समस्त हित-शिक्षा भाव-धर्म की रक्षार्थ ही है, हृदय कोमल रहे उसके लिए ही है ।
आवेश में रहें, माया-प्रपंच करें, आसक्ति रखें तो समझ लें कि 'हम अपने ही भाव-प्राणों की हत्या कर रहे हैं ।'
भगवान ने कहा है - 'आत्मगुणों की रक्षा करें', परन्तु हम विपरीत कर रहे हैं । कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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