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पूर्व प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकलवा लिया था और पुत्र को उन्होंने धूमधाम से प्रतिष्ठा करने का कहा था ।
कुम्भ स्थापना के दिन पालीताना में खेमचन्द की माता दीवालीबेन का देहान्त हो गया, फिर भी प्रतिष्ठा धूमधाम से हुई ।
कुलक्षणवाला मकान (प्राचीन कालमें दास-दासी-ढोर आदि भी सुलक्षणयुक्त रखते थे) कुलक्षणवाले अभिमंत्रित वस्त्र, कुष्ठ रोगी आदि से वासित उपकरणों का परिभोग, अजीर्ण पर बार बार भोजन करने से हुई बीमारी के पीछे खर्च, बार बार बीमारी के पीछे खर्च, प्रतिकूल विचार एवं राजा आदि की टीकात्मक वाणी (राजा क्रोधित होकर देश निकाला देता है), अशुभ अध्यवसाय (क्रोध के विचार से भी धनहानि होती है) अयोग्य स्थान पर निवास, राज्य के विरुद्ध कथा कहना इत्यादि कारणों से बड़े-बड़े धनवान भी निर्धन बन जाते हैं । इनसे विपरीत कारणों से रंक भी धनवान बन जाते हैं । हमारे पास भी आभ्यन्तर चारित्र की सम्पत्ति है, वह लुट न जाये, उसकी सावधानी रखनी है ।
गुरु, गच्छ, आदि चारित्र धन की वृद्धि करनेवाले परिबल है।
अध्यात्म गीता
'सद्गुरु योगथी बहुलजीव, कोई वली सहजथी थई सजीव; आत्मशक्ति करी ग्रन्थि भेदी, भेदज्ञानी थयो आत्मवेदी ॥ १९ ॥
. विद्या होठों पर (कण्ठस्थ) होनी चाहिये, धन (पैसा) जेब में होना चाहिये । उधार धन से माल नहीं मिलता । उधार ज्ञान साधना में काम नहीं आता । इसीलिए कहता हूं कि यह 'अध्यात्म गीता' कण्ठस्थ करें ।
- सीढियों पर जाना हो तो पीछे की सीढियां पार करनी पड़ती हैं । वहां दृढता से स्थिर बनना पड़ता है। उसके लिए पल-पल का ध्यान रखना पड़ता है। थोड़ी असावधानी होते ही गुणस्थानक चला जाता है। एक समान गुणस्थानक तो केवल भगवान को ही रहता है।
प्राप्त भूमिका में स्थिरता एवं आगे बढ़ने की प्रेरणा क्रिया करने से प्राप्त होती है, इस प्रकार सद्गुरु हमें समझाते हैं ।
*** कहे कलापूर्णसूरि - 3
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