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कटुक विपाकी चेतना मेले कर्म विचित्त; आत्मगुणने हणतो, हिंसक भावे थाय, आतम धर्मनो रक्षक, भाव अहिंसक कहाय. ॥ १६ ॥
कार्य करने की और कार्य करने से पूर्व जानने की आत्मा की ये दो मुख्य शक्तियां हैं ।
वीर्यगुण और ज्ञानगुण को कर्म सर्वथा ढक नहीं सकता, परन्तु जब तक उपयोग परभावरंगी बना हुआ हो, तब तक कर्म-बन्धन चालु रहता है । हम ही अपने आसपास जाल रचते हैं, अपनी बेड़ियों को सुदृढ करते हैं ।
एक आत्म-प्रदेश कर्म का बन्धन करे और दूसरा आत्मप्रदेश कर्म काटे, ऐसा कभी नहीं होता । कोई भी कार्य सभी आत्मप्रदेश मिलकर ही कर सकते हैं ।
. आसक्ति के कारण अत्यन्त ही चिकने अशुभ कर्म बंधते हैं । कभी-कभी शुभ कार्य से शुभ कर्म बंधता है, परन्तु भीतर का उपयोग बदला न होने के कारण शुभ अनुबंध नहीं पड़ता ।
अनन्तानुबंधी कषाय भीतर पड़ा हो वैसे जीव ऐसे आवेश में होते हैं । थोड़ा भी छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं होते । ऐसे जीव शुभ क्रिया करें तो भी अनुबंध तो अशुभ ही पड़ते हैं ।
याद रहे कि अनन्तानुबंधी की उपस्थितिमें एक भी गुण सही तरीके से प्रकट नहीं हो सकता ।
'मेले' अर्थात् प्राप्त करना है, कर्म-बन्धन करता है ।
अनन्तानुबंधी एवं मिथ्यात्व की उपस्थिति में नरक की आयु बंधती है। सम्यक्त्व की उपस्थिति में तो वैमानिक का ही आयुष्य बंधता है । देव हो तो मनुष्य की आयु बांधता है ।
. आत्म-गुणों की हिंसा करनेवाला भाव-हिंसक कहलाता है, स्वभाव-घातकी कहलाता है। हम दूसरे को मारनेवाले को हिंसक कहते हैं, परन्तु भाव-प्राण की हिंसा कभी हमारी दृष्टि में ही नहीं आती ।
द्रव्य-हिंसा हो गई हो फिर भी स्वभाव दशा में मुनि को हिंसा का दोष नहीं लगता या पूजा करनेवाले को हिंसा का दोष नहीं लगता । इसका यही कारण है ।
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