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'तुम न्यारे तब सब ही न्यारा...'
भगवान (उपलक्षण से नवपद) समीप तो सब समीप, भगवान दूर तो सब ही दूर ।
* जब किसी के प्रति अमैत्रीभाव आये तब कभी विचार आया - मैं 'मित्ती मे सव्वभूएसु' दिन में दो बार तो बोलता ही हूं?
मैत्री की दृष्टि से जीवों को देखना तो मित्रादृष्टि का, सम्यक्त्व से भी पूर्व का लक्षण है । साधु तो जीवों को आत्मवत् देखते
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__ मैत्री तो मानवता का प्रथम सोपान है ।
जिसे कण्ठस्थ किये बिना बड़ी दीक्षा नहीं होती उस दशवैकालिक में आपने क्या पढा है ?
'सव्वभूअप्पभूअस्स, सम्मं भूआई पासओ ।'
सब जीवों में स्व जीव को देखनेवाले साधु होते है, इसीलिए साधु सर्वभूतात्मभूत कहलाते है ।
___ मार्गानुसारिता में रहा हुआ व्यक्ति भी जीवों को मित्र की दृष्टि से देखता है । साधु तो समस्त जीवों को आत्मवत् देखते है । वे दूसरों में अपना ही स्वरूप देखते है। दूसरे की हिंसा में अपनी, दूसरे के अपमान में अपना ही अपमान देखते है, वे साधु हैं।
. यह सब मैं अपना वक्तृत्व बताने के लिए नहीं कहता । हम तो केवल इस माध्यम से स्वाध्याय करते हैं ।
. जीवों के साथ सम्बन्ध सुधरते ही परमात्मा के साथ सम्बन्ध सुधरने लगता है।
. निर्मलता, स्थिरता एवं तन्मयता यह क्रम है ।
जिन जिन अनुष्ठानों से आत्मा की निर्मलता आदि हो, उन उन अनुष्ठानों में ध्यान देना आवश्यक है ।
निर्मलता से - सम्यग्दर्शन । स्थिरता से - सम्यग्ज्ञान ।
और तन्मयता से सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है । ध्यान में तीनों की एकता होती है ।
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