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चाहे न हो, परन्तु यह स्वयं इच्छारूप है । आर्तध्यान के चार प्रकारों में इच्छा ही दिखती है न ? इष्ट की प्राप्ति न होना, अनिष्ट प्राप्त होना - यह सब क्या है ? उसे शिष्य मिल गये, मुझे नहीं मिले, ये सभी इच्छाएं ही हैं न ?
. पर-परिणति के साथ अत्यन्त परिचय किया है। स्व के साथ परिचय किया ही नहीं । प्रभु के साथ परिचय किया ही नहीं । प्रभु अपने हैं, ऐसा कभी लगा ही नहीं । प्रभु - माता; पिता, भाई, बन्धु, गुरु, नेता और सर्वस्व है - ऐसा अनुभवी भले कहें, परन्तु यह अपना अनुभव बने तब काम होगा ।
. स्वाध्याय में एकाग्रता आने पर ध्यान प्राप्त होता है । ध्यान के दो प्रकार है : (१) धर्म ध्यान - सालम्बन ध्यान - मूर्ति आदि का ध्यान । (२) शुक्ल ध्यान - आत्मा का ध्यान - परम ध्यान ।
परमात्मा के साथ जो एकता कराये वह धर्म ध्यान है । आत्मा के साथ जो एकता कराये वह शुक्ल ध्यान है।
क्यांथी मळे ? स्वाति नक्षत्रमा छीपमां पडेलु वर्षानुं पाणी मोती बने, तेम मानवना जीवनमा प्रभुना वचन पडे अने ते परिणाम पामे तो अमृत बने. अर्थात् आत्मा परमात्म-स्वरूपे प्रगट थाय. परंतु संसारी जीव अनेक पौगलिक पदार्थोमां आसक्त छे, तेने आ वचन क्याथी शीतळता आपे ? अग्निनी उष्णतामां शीतळतानो अनुभव क्याथी थाय ? जीव मनने आधीन होय त्यां शीतळता क्यांथी मळे ?
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******* कहे कलापूर्णसूरि - १)
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