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संग्रहनय का कथन है - समस्त जीव एक हैं । नैगम नय का कथन है - तू शुद्ध स्वरूपी है । तेरे आठ अंश तो शुद्ध ही हैं । पूरी खिचड़ी तपासने की आवश्यकता नहीं है । एक दाना दबाने पर पता लग जाय कि खिचड़ी पक गई कि नहीं ? तेरे शुद्ध आठ अंश ही कहते है - तू शुद्ध स्वरूपी है ।।
• विषय-कषायों के विरुद्ध हमने युद्ध छेड़ दिया है । मानो न्यायालय में केस चलता है । हमारा केस (मुकदमा) यदि भगवान को सोंप दें तो बेड़ा पार हो जाय ।
. निर्धन दशा में कोई धनाढ्य सहायता करे तो हमारे दिल में कितनी शीतलता महसूस होती है ? सुख में सब साथ देते हैं, दुःख में कौन ? हम निगोद में अत्यन्त दुःखी दशा में थे तब हमारा हाथ पकड़ने वाले भगवान थे ।
'काल अनादि अतीत अनन्ते जे पररक्त,
संगांगि परिणामे, वर्ते मोहासक्त;
पुद्गल भोगे रीझ्यो, धारे पुद्गल खंध, परकर्ता परिणामे, बांधे कर्मना बंध ॥१२॥'
अपना ही नहीं, तीर्थंकरों का भी ऐसे ही दुःखों से ग्रस्त भूतकाल है ।
जीव अनादि से है, कर्म अनादि है, अतः सब की यही स्थिति स्वीकार करनी रही, ऐसा क्यों ? जीव में पर की आसक्ति विद्यमान है । पुद्गल की अच्छी संगति पाकर जीव प्रसन्न होता है और नये-नये कर्म बांधता है ।
'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' आदि विकल्प उसे आते हैं ।
निश्चय नय से चाहे आत्मा कर्म से अलिप्त हो परन्तु व्यवहार नय से कर्मों से लिप्त है ।
जितना समय कर्म के संयोग में गया, उतना ही समय कर्म के वियोग में जाये, ऐसा नहीं है । चरमावर्तकाल में आने के बाद तुरन्त कार्य हो जाता है । अचरमावर्तकाल के जीव असाध्य रोगियों के समान हैं । उनके लिए कर्मविगम कठिन है । . 'बंधक वीर्य करणे उदेरे, विपाकी प्रकृति भोगवे दल विखेरे ! कर्म उदयागता स्वगुण रोके, गुण विना जीव भवोभव ढौके ॥ १३ ॥' कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ५००