________________
एक ही देव उपास्य होने चाहिये । एक साथ अनेक देवदेवियों की हम कई बार आराधना करते है, हम भले दूसरों का अनादर न करें, परन्तु साथ ही साथ समकक्ष भी न बनायें ।
अमेरिका आदि में अरिहंत की मूर्ति के साथ अन्य अनेक मूर्तियां देखने को मिलती है । वे कहते हैं कि हम तो सबको मानते हैं ।
मैं कहता हूं - 'इस प्रकार अरिहंत की भक्ति नहीं होती, नहीं फलती ।'
गाथा २१, पूज्य आचार्यश्री...
प्रभु आपको देखने के बाद कोई देखने जैसा नहीं लगता । मेरा मन इस भव में ही क्या, भवान्तरों में भी अन्यत्र स्थिर नहीं होगा ।
गाथा २२ स्त्रीणां...
. तारे असंख्य है, सूर्य एक है । प्रभु, मेरे मन तो तू एक है।
* प्रभु की माता है - करुणा । प्रभु को यदि हृदय में लाने हों तो करुणा लानी पड़ेगी ।
गाथा २३, पूज्यश्री...
प्रभु ! मृत्युंजयी आप ही हैं । आपको पाकर मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकते हैं । प्रभु अजरामर हैं, वे भक्तों को भी अजरामर बनाते हैं । जरा-मृत्यु के निवारण से ही अजरामर बना जा सकता है । अजरामर स्थान अर्थात् ब्रह्मरंध्र । सम्यग्दृष्टि उसे प्राप्त करता
प्रभु ! आप स्वयं तीर्थंकर है और तीर्थ भी हैं । मार्ग-दाता हैं और मार्ग भी हैं ।
रत्नत्रयी बतानेवाले ही नहीं, आप स्वयं रत्नत्रयी स्वरूप हैं । यह गम्भीर बात यहां बताई है । गाथा २४-२५, पूज्यश्री...
प्रभु सर्वोपरि सत्ता हैं । उनका ऐश्वर्य, आर्हत्य तीनों लोक में व्याप्त है । प्रभु ! आप अव्यय, अविनाशी, विभु (जैन दृष्टि से ज्ञान के रूप में व्यापक) नित्य एवं अचिन्त्य, विचारों (विकल्पों)
******** कहे कलापूर्णसूरि - १
५१४ ****************************** कहे