________________
'भवो भव तुम चरणोनी सेवा' भगवान को इस प्रकार कहते ही हैं न ? सेवा विनयरूप तप ही है ।
ज्ञान, तप आदि उत्कृष्ट कक्षा के हों तो समझे कि पूर्व जन्म के संस्कार पड़े हुए है । इसीलिए ये गुण उत्कृष्ट कक्षा के बने हैं । इस जन्म में यदि और अधिक संस्कार डालेंगे तो आगामी जन्म में गुण और भी पराकाष्ठा पर पहुंचेंगे ।
. इच्छारोधे संवरी. इच्छा-रोध अर्थात् संवर; इच्छा करना अर्थात् आश्रव ।
संवर से आत्म-गुणों का आस्वाद प्राप्त होता है। ऐसा आस्वाद करनेवाली आत्मा स्वयं ही नैश्चयिक दृष्टि से तप है ।
आगम या नोआगम से शुभ भाव ही सत्य है । आप अपने आत्म-भाव में स्थिर बनें । पर-भाव में राचो मत ।।
स्वगृह में रहोगे तो कोई निकालेगा नहि । यदि दूसरे के घर में रहने गये तो आपको निकाल दिया जायेगा ।
स्वभाव स्वगृह है । परभाव पर घर है । शास्त्रों में असंख्य योग बताये हुए हैं ।
ध्यान के चार लाख भेद तो स्थूल हैं । बाकी प्रत्येक भेद में भी अनेक भेद-स्थान होते है । इन सब में मुख्य योग नवपद हैं । नवपद युक्त आत्मध्यान ही प्रभाणभूत माना जाता है । इसे छोड़कर कहीं मत जाना । सीधे अनालम्बन में छलांग मत लगाना । 'योग असंख्य ते जिन कह्या, नवपद मुख्य ते जाणो रे;
एह तणे अवलम्बने, आतमध्यान प्रमाणो रे...'
आत्मध्यान करो तो ही नवपद प्रमाणभूत है । ऐसा अर्थ भी इस पद्य में से आप खींचकर कर सकते हैं । अपना मन चाहा अर्थ यहां नहीं चलता । ऐसा अर्थ आपकी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है। आप शास्त्रों के अनुसार चलना नहीं चाहते, परन्तु जो करते हो उसे शास्त्र-सम्मत बनाने के लिए शास्त्र की मोहर लगाने के लिए खींच तान कर अर्थ करते हैं ।
यह केवल आत्मवंचना होगी ।
४६६
******************************
********* कहे कलापूर्णसूरि - १
कहे