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• ध्यान के द्वारा प्रभु का स्पर्श करना समापत्ति है । इन्द्रियों के द्वारा विषयों का स्पर्श अनेक बार किया । अब इन्द्रियों को प्रभु-गामी बनानी है, प्रभु स्पर्शी बनानी है। आंखों से टेलिविझन आदि बहुत देखे । अब प्रभु को देखने है । अन्य गीत बहुत सुने,अब जिनवाणी सुननी है ।
इधर-उधर का बहुत पढा, अब जिनागम पढें ।
दूसरों की खुशामद बहुत की, अब इस जीभ से प्रभु के गुण गाने हैं ।
जगत् के स्पर्श अनेक किये । अब हमें प्रभु-चरणों का, गुरुचरणों का ('अहो कायं काय', यह गुरु-चरणों की स्पर्शना ही है। गुरु को कष्ट न हो अतः रजोहरण (ओघा) में चरणों की स्थापना करनी है) स्पर्श करना है । आगे बढकर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का स्पर्श करना है, सिद्धों के शुद्ध स्वरूप का स्पर्श करना है।
. सिद्ध मानते हैं कि जगत के जीवों ने हमें यहां पहंचाये । अन्यथा हम यहां कैसे पहंचते ?
__ दानी मानेंगे : दान लेनेवाले नहीं मिले होते तो हम क्या करते ?
गुरु मानेंगे : शिष्य नहीं होते तो मैं किसे पढाता ? किसको बोध देता ?
शिष्य मानेंगे : गुरु ने मुझे सेवा करने का कितना उत्तम लाभ दिया ?
ऐसी विचारधारा से कहीं भी किसी को अभिमान नहीं आता । सब का दृष्टिकोण भिन्न होता है। दूसरे का दृष्टिकोण हम अपनाते है तब हम दोष के भागीदार बनते है ।
• शक्ति होते हुए भी पच्चक्खाण न करें तो हमारा अणाहारी पद विलम्ब में पड़ेगा ।
कई बार शक्ति होते हुए भी हम थोड़े से ही चूक जाते हैं।
गृहस्थ जीवन में मैंने १६ उपवास किये थे, अत्यन्त ही स्फूर्ति एवं उल्लास था । मासक्षमण आराम से हो जाता, परन्तु अवसर चला गया । बाद में मासक्षमण नहीं हो सका । शक्ति होते हुए भी तप न करें तो हम अपराधी हैं ।
** कहे कलापूर्णसूरि - १
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