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भगवान भी प्रशंसा करते हैं तो दूसरों की क्या बात ? 'धन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंद कामदेवा य । जास पसंसई भयवं, दढव्वयत्तं महावीरो ॥'
'तृण परे जे षटखंड सुख छंडी.' चक्रवर्ती को जब समझ में आ जाय कि संयम ही लेने जैसा है, तब छः खण्ड की ऋद्धि उसे तिनके के समान लगती है । सनत्कुमार की तरह वह क्षणभर में छोड़ दे ।
संयम का सुख अनुपम है । संयम का वास्तविक सुख तब ही प्राप्त होगा यदि हम भाव से साधुत्व प्राप्त करें ।
. 'हुआ रांक पण जेह आदरी.'
भिखारी भी इस संयम का स्वीकार करते हैं तो इन्द्र एवं नरेन्द्र भी उसके चरणों में झुकते हैं ।
. चारित्र के साथ ज्ञान का आनन्द सम्मिलित हो जाये तो वह सुशोभित होगा ।
. १२ कषायों का नाश होने पर ही सर्वविरति प्राप्त होती है, अतः साधु को प्रशम का आनन्द होता है । प्रशम ज्ञान का फल है ।
सम्यक्त्व में प्रशम का आनन्द होता है, परन्तु वह अनन्तानुबंधी कषाय का नाश होने से उत्पन्न हुआ हो । देशविरति को अनन्तानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानी के नाश से प्रशम का आनन्द बढता है । सर्वविरतिधारी साधु को प्रत्यारव्यानी का नाश होने से आनन्द बढता है । संज्वलन का नाश होने से यथारव्यात चारित्र में प्रशम आनन्द की चरम सीमा आ जाती है ।
ज्यों ज्यों कषाय क्षीण होते जाते हैं, आवेश मन्द होता जाता है, त्यों त्यों अपने भीतर बैठा परमात्मा प्रकट होता जाता है । कषायों का पूर्णतः नाश होते ही हमारे भीतर विद्यमान प्रभु प्रकट हो उठते है, जैसे पत्थरमें से निरर्थक भाग निकल जाते ही भीतर रही प्रतिमा प्रकट हो उठती है ।
__'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।' कषायों का नाश ही सच्ची साधना है । प्रभु एवं हमारे बीच कषायों का ही पर्दा है ।
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