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नाड़ी देखकर वैद्य को पता लगता है, रक्त आदि से डॉकटर को पता लगता है, उस प्रकार प्रसन्नता-अप्रसन्नता से आत्मा के आरोग्य का पता लगता है।
- डोकटर जयचंदजी ने मद्रास में कहा था कि अब आप कमरे में से बाहर नहीं निकल सकेंगे ।
मैंने कहा : 'मैं बहार निकलूंगा, प्रतिष्ठा भी कराउंगा, मुझे प्रभु पर विश्वास है ।'
डोकटर ने कहा - 'आपकी प्रसन्नता है तो बात हो गई ।' और सचमुच नेल्लोर-काकटुर की प्रतिष्ठा मैंने कराई ।
जीने की इच्छा न हो वैसे रोगी को डोकटर भी नहीं बचा सकता । तरने की इच्छा न हो उसे भगवान भी तार नहीं सकते ।
समतापूर्वक तप करो तो बेड़ा पार हुआ समझों । समता, भक्ति एवं करुणा आपकी आत्मा की निर्मलता की सूचक हैं । भक्ति से दर्शन, करुणा से ज्ञान और समता से चारित्र का पता लगता है ।
. कौनसा तप निकाचित कर्मों को भी काट सकता है ?
निष्कामपन से, निर्हेतुपन से और दुर्ध्यान - रहितता से होनेवाला तप कर्म क्षय के लिए समर्थ होता है । वह निकाचित कर्मों के अनुबन्धों को भी तोड़ डालता है । _ 'मेरी २०० ओली की पारणा होगा, अतः ये होना चाहिये
और वह होना चाहिये' ऐसी कोई इच्छा तपस्वी को नहीं होती । विद्या, मंत्र, जाप, आत्मशक्ति इत्यादि गुप्त रखी जायें तो ही फलदायक होती हैं, उस प्रकार तप भी गुप्त रखा जाये तो ही फल देता है ।
मैं तो कहता हूं - 'संसार में नाम जमता है, कीर्ति जमती है वह 'पलिमंथ' है । पलिमंथ अर्थात् विघ्न ।' लोगों की भीड़ से होनेवाले विघ्न हैं ।
मैं तो यहां तक कहंगा - 'अपकीर्ति तो बहुत ही अच्छी । अपकीर्ति होने पर लोगों का आना बंद हो जाता है । लोगों का आना बंध होने पर साधना अत्यन्त ही अच्छी प्रकार से हो सकेगी।
कहते हैं कि चिदानन्दजी महाराज को यदि पता लग जाता
कहे
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