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सागारिया., आउं., गुरु., पारिट्ठा., ये चार बढते हैं : १. गृहस्थ आ जायें तब । २. पैर लम्बे-छोटे करने पड़ें तब । ३. गुरु आने पर खड़ा होना पड़े तब ।
४. आवश्यकता पड़ने पर (आहार बढ जाये तब) वापरना पड़े तब पच्चक्खाण नहीं टूटता ।
वि. संवत् २०१४ के चातुर्मास में सुरेन्द्रनगर में मलयविजयजी को ओली का उपवास था । वर्षा हो रही थी । बंध होते ही सब गोचरी के लिए चल पड़े । जो मिला वह भरकर ले आये । ५५ ठाणे थे । वापरने बाद भी दो झोली आहार बढ गया । पू. प्रेमसूरि महाराजा की आज्ञा से मलयविजयजी ने बढी हुई गोचरी वापरी । यह 'पाद्धिा.' कहलाता है। इससे पच्चक्खाण नहीं टूटता
और न स्वास्थ्य बिगड़ता है । उल्टा आहार नहीं लेने से स्वास्थ्य बिगड़ता है । यह तो सहायता कहलाती है ।
जितना उपयोग स्वभाव में, उतनी कर्म-निर्जरा । जितना उपयोग विभाव में, उतना कर्म-बंधन । शुभ उपयोग तो शुभ कर्म । शुद्ध उपयोग तो कर्मों की निर्जरा ।
. सम्यग्दृष्टि का प्रथम लक्षण है - शम । सब के प्रति समताभाव ।
किसी को आप एक बार मारकर आप अपने अनन्त मरण निश्चित करते हैं क्योंकि आप दोनों एक ही हैं । दूसरे को मारते हो तब आप अपने पांव में कुल्हाड़ी मारते हो । जिस प्रकार मुझ से मेरा पांव अलग नहीं है, उस प्रकार जगत के जीव भी हम से अलग नहीं है । जीवास्तिकाय के रूपमें हम एक हैं । आत्मा असंख्य प्रदेशी है, उस प्रकार जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है ।
जीवास्तिकाय एक ही है, अर्थात् जीवास्तिकाय के रूप में हम एक ही हैं ।
__जो इस प्रकार एकता देखता है, वह किसी की हिंसा कैसे कर सकता है ? उसे दूसरे का दुःख, दूसरे की पीड़ा, दूसरे का अपमान अपना ही लगता है । 'तुमंसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वंति मनसि ।'
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कहे
कलापूर्णसूरि - १)