________________
दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा होती है, तब तक वह प्राप्त नहीं होती । सर्वज्ञता की पूर्व शर्त वीतरागता है ।
पर्याय के दो प्रकार : १. प्रवर्तन : कार्य स्वरूप, २. सामर्थ्य : शक्ति स्वरूप । सत्पर्याय (छती पर्याय) ।
उदाहरणार्थ रस्सी । जिससे हाथी बांध सकते है या विशाल शिलाएं (चट्टान) चढाई जा सकती हैं ।
वह रस्सी जितने तंतुओं से बनी हो उतनी मोटी होगी । यह मोटाई सामर्थ्य पर्याय है, परन्तु रस्सी कोई रखने के लिए नहीं बनाई जाती । इसके द्वारा शिला आदि चढाई जाती हैं या हाथी बांधा जाता है । ऐसे कार्यों के समय प्रवर्तन पर्याय होते हैं ।
'छती पर्याय जे ज्ञाननी, ते तो नवि बदलाय; ज्ञेयनी नवी नवी वर्तना रे, समयमां सर्व समाय ।'
यहां 'छती पर्याय' से तात्पर्य है 'शक्ति पर्याय'
प्रभु के शुद्ध द्रव्य पर्याय के ध्यान से हमारे भीतर प्रभु के गुण आते हैं ।
जिस प्रकार दर्पण के सामने खड़े रहते ही आपका प्रतिबिम्ब उसमें पड़ता है । हमारा मन भी दर्पण है । प्रभु के समक्ष खड़े रहें, प्रभु का ध्यान धरे । उनके गुण हम में संक्रान्त होंगे ।
सम्पूर्ण जगत का कूड़ा-कचरा संग्रह करने के लिए हम तैयार हैं, लेकिन प्रभु के गुण के लिए नहीं ।
* ध्यान पद्धति : १. प्रभु के गुणों का चिन्तन । २. प्रभु के साथ सादृश्य चिन्तन । ३. प्रभु के साथ अभेद चिन्तन । यह साधना का क्रम है ।
ऐसा नहीं करें तो शरीर के साथ का हमारा अभेद नहीं मिटेगा । शरीर का अभेद अनादिकालीन है, अनन्त जन्मों के संस्कार हैं। शरीर के साथ भेद की बात और प्रभु के साथ अभेद की बात, हमारे जीव ने कभी सुनी ही नहीं हैं । फिर मस्तक में कहां से उतरे ?
यह ध्यान भी व्यवहार में निष्णात बनने के बाद ही लागू होता है। अन्यथा कानजी मत के अनुयायियों के जैसी दशा हो
-१******************************४१३