________________
में तो वे मिठास से कहते थे । इतने से कार्य नहीं होता तो उसे थोड़ी आंखें लाल करके कहते 'मालुम नहीं पड़ता ?' बस, यह उनकी सीमा थी । इतना जिसे कहते वह एकदम सीधा हो जाता । परन्तु सारणा आदि योग्य शिष्य को ही किया जा सकता
है ।
'अत्थमीये जिन सूरज... '
I
केवली एवं चौदह पूर्वियों के विरह में आचार्य ही इस समय आधाररूप हैं | आचार्य ही इस समय शासन के आधार स्तम्भ हैं । अरिहंत का सेवक अरिहंत बनता है । सिद्ध का सेवक सिद्ध बनता है । आचार्य का सेवक आचार्य बनता है । उपाध्याय का सेवक उपाध्याय बनता है । साधु का सेवक साधु बनता है ।
आपको जो बनना हो उसकी सेवा करें। एक को यदि बराबर पकड़ोगे तो अन्य चार भी अपने आप पकड़ में आ जायेंगे, यह न भूलें ।
उपाध्याय पद :
'नहीं सूरि पण सूरिगणने सहाया, नमुं वाचका त्यक्त मद मोह माया'
उपाध्याय भले ही आचार्य नहीं है, परन्तु आचार्य के सहायक हैं । जैसे प्रधान मन्त्री और राष्ट्रपति के सचिव होते हैं, उस प्रकार उपाध्याय आचार्य के सचिव हैं ।
आचार्य का कार्य शासन के सम्बन्ध में तत्त्व - चिन्तन का होता है । उन्हें पर्याप्त समय मिले अतः बाकी काम दूसरे संभालते हैं । 'कार्य मैं करूं और यश आचार्य को मिले ?' ऐसा विचार उपाध्याय नहीं करते । अतः लिखा है ' त्यक्त मद मोहमाया...' 'सूत्रार्थ दाने जिके सावधाना...' सूत्रार्थ - दानमें उपाध्याय सदा तत्पर होते हैं । उपाध्याय के गुण कितने ?
= ५ × ५ = २५.
५ का वर्ग २५ का वर्ग
= २५ x २५ = ६२५.
वाचक, पाठक आदि उपाध्याय के ही नाम हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि- १ *****
** ४२५