________________
विभाव में जाते हैं ? स्वभाव में रहने की हमारी जीवनभर की प्रतिज्ञा है । आप वह प्रतिज्ञा भूल तो नहीं गये न ?
गृहस्थों की प्रतिज्ञा 'जाव नियम' लेकिन हमारी प्रतिज्ञा तो 'जावज्जीवाए' है, यह भूल जाये तो कैसे चलेगा ?
'स्वभाव' अर्थात् हमारा स्वयं का भाव । स्वभाव में रहें उतने समय तक कर्मों का क्षय होता ही रहे । परभाव में रहने से तात्पर्य है अपनी आत्मा को दुर्गति में धक्का देना ।
स्वभाव में असंक्लेश, परभाव में संक्लेश । संक्लेश अर्थात् संसार असंक्लेश अर्थात् मोक्ष ।
असंक्लेश में यहीं पर मोक्ष का अनुभव होता है, जीवन्मुक्त दशा का अनुभव होता है ।
प्रदेश-प्रदेश में आनन्दानुभूति होती है । गीता में ऐसे योगी को स्थितप्रज्ञ कहा है। गीता के स्थितप्रज्ञ के ये लक्षण जैन मुनि को बराबर घटित होते हैं । पढने योग्य हैं वे लक्षण ।
वे लोग स्थितप्रज्ञता प्राप्त करने के प्रयत्न करते हैं। हमें स्वभाव दशा के लिए प्रयत्न करना है । मूलतः दोनों वस्तु एक ही हैं । सामायिक सूत्र उसके लिए साधन है ।
उपशम, विवेक, संवर इन तीन शब्दों को सुनने से हत्यारे चिलातीपुत्र को समताभाव की प्राप्ति हुई थी। मुनि ने केवल तीन शब्द ही सुनाये थे । उसने तलवार खींचकर कहा था, 'साधुडे ! धर्म सुना अन्यथा सिर काट डालूंगा।'
'सामाइअस्स बहुहाकरणं तप्पुव्वगा समणजोगा ।'
श्रमण के समस्त योग सामायिक पूर्व के होते हैं । किसी भी स्थान पर समता भाव नहीं ही जाना चाहिये ।
पनिहारियों का ध्यान बेड़ों में होता है, चाहे वे बातें करती हों, उस प्रकार चाहे जितनी प्रवृत्ति में मुनि का मन समता में होता (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
१ ****************************** ३९३