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HARYANA
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वेशाविसं.
१५-७-१९९९, गुरुवार
आषा. सु. ३
ग्रन्थ दिशा-दर्शक हैं । मार्ग-दर्शक बोर्ड का यों कोई मूल्य नहीं प्रतीत होता । हमें कहीं जाना न हो, किसी मार्ग की जांच नहीं करनी हो तो बोर्ड हमें बिल्कुल निरर्थक प्रतीत होता है, परन्तु जब हमें किसी स्थान पर जाना हो, कहीं मार्ग प्रतीत नहीं होता हो, कोई मनुष्य भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता हो, तब मार्ग-दर्शक बोर्ड पर अचानक हमारी दृष्टि जाती है तो उसका मूल्य समझ में आता है। यहां बैठे-बैठे उस बोर्ड का कोई मूल्य नहीं समझ में आयेगा । जो मार्ग भूले हुए हों, अनुभव हो चुका हो, उन्हें ही बोर्ड का मूल्य समझ में आता है ।
शास्त्र भी ऐसा बोर्ड है, ऐसी तख्ती है । मार्ग खोजनवाले को ही उसका मूल्य समझ में आयेगा । हम सभी को मोक्षनगर में जाना है। साधक को नित्य निरीक्षण करना चाहिये कि मैं कितना आगे बढा ? मार्गानुसारी की भूमिका में आने पर प्रयाण शुरू होता हैं। अयोगी गुण स्थानक पर प्रयाण पूर्ण होता है। मध्य के गुणस्थानकों में रहे हुए सब मार्ग में है ।
सर्व प्रथम दम्भ-परित्याग की बात कही गई है । हम जैसे
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