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है वैसे नहीं दिखाना, हम न हों वैसे दिखाने का प्रयत्न करना दम्भ है ।
मिथ्याप्रशंसा के समय मौन रहना भी दम्भ है ।
सरलता के बिना मुक्ति तो क्या, समकित भी प्राप्त नहीं होता । संसार में भी दम्भ अविश्वास का कारण बनता है ।
आत्मानुभवाधिकार में साधक को अन्त में २९ शिक्षाएं दी गई हैं । प्रत्येक शिक्षा जीवन में उतारने योग्य है । किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिये ।
१.
२.
पापी पर भी भवस्थिति का विचार करना चाहिये । साधना को निन्दा कलंकित करती हैं ।
हम पू. पं. भद्रंकरविजयजी एवं पू. कनक- - देवेन्द्रसूरिजी के पास वर्षों तक रहे हैं, परन्तु कभी किसी की निन्दा नहीं सुनी । निन्दा करना अर्थात् अपनी पुण्य की सम्पत्ति को अपने ही हाथों नष्ट करना । युधिष्ठिर के मुंह में कदापि निन्दा नहीं थी, क्योंकि उनकी दृष्टि में कोई भी दोषी नहीं था । निन्दा दूर करने के लिए गुणानुराग होना चाहिये । जहां गुणानुराग होगा वहां निन्दा प्रविष्ट ही नहीं हो सकेगी ।
मुंबई में हजारों दुकान हैं । आप किसी दुकान पर गये और वहां आपको अमुक वस्तु नहीं मिले, तो आप उस दुकान की निन्दा नहीं करने लगते । अन्य दुकान पर जाते है । उसी तरह कोई सम्भवित गुण हमें कहीं दृष्टिगोचर न हो तो उस की निन्दा करने की आवश्यकता नहीं है । सामनेवाले व्यक्ति कोई आपकी अपेक्षा पूर्ण करने के लिये जी रहा नहीं है ।
जिन व्यक्तियों के दुर्गुणों एवं दोषों की हम निन्दा करेंगे, वे ही दोष एवं दुर्गुण हमारे भीतर प्रविष्ट हो जायेंगे । चोर एवं डाकुओं को क्या आप कभी घर में बुलाते हैं ? दोष चोर एवं डाकू हैं । मेरे भीतर हैं उतने दोषों को भी मैं सम्हाल नहीं सकता तो दूसरों को किसलिए बुलाऊं ?
यदि कोई दोषों के सम्बन्ध में कह रहा हो तो उन्हें सुने भी नहीं । यदि कारणवश सुनने योग्य परिस्थिति हो तो उस स्थान को छोड़ कर चले जायें ।
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***************** कहे कलापूर्णसूरि