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हुई हो, उसे ही मुक्ति मिल सकती है । भक्ति के बिना नौपूर्वी भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते ।।
___ 'तस्मिन् परमात्मनि परमप्रेमरूपा भक्तिः ' - ऐसा नारदीय भक्ति-सूत्र में लिखा है । श्रेणिक महाराजा ने इस प्रेमरूप भक्ति से ही तीर्थंकर नाम-कर्म बांधा था ।
__ भगवान को छोड़कर ध्यान नहीं होगा, दुर्ध्यान होगा । जहां भगवान न हो उसे कभी ध्यान न मानें । ऐसे ध्यान से भ्रमित मत होना ।
* श्रावक दुर्गादास ने पू. देवचन्द्रजी को कहा, 'भगवन् ! आप तो अध्यात्म-रसमें तन्मय हैं । हम पर उपकार हो क्या आप ऐसा कुछ कर सकते हैं ? कोई रचना करें ।
दुर्गादास की इस विनती पर श्री देवचन्द्रजी ने अध्यात्म-गीताकी रचना की है । लघु कृति भी अध्यात्म-रस से पूर्ण है ।
पू. देवचन्द्रजी ने दुर्गादास का 'मित्र' के रूपमें उल्लेख किया
• आप पहले भक्ति एवं विरति शुद्ध भाव से अपनायें । फिर आपको ध्यान में पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी ।
समग्र जीवराशि के प्रति भाव करुणा ही भगवान को भगवान बनाती है।
भक्ति से प्रभु के प्रति समर्पण भाव, विरति से जीवों के प्रति मैत्री भाव जागृत होता है । इन दोनों से समाधि मिलेगी ही । प्रथम माता (वर्णमाता) ज्ञान देती है। दूसरी माता (पुन्यमाता नवकार) भक्ति देती है । भगवान की भक्ति नाम आदि चार प्रकार से हो सकती है ।
तीसरी धर्ममाता, अष्टप्रवचन माता, विरति देती है । चौथी ध्यानमाता, त्रिपदी समाधि देती है ।
. इस काल में शायद आज्ञा-पालन पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता, परन्तु आज्ञा के प्रति आदर हो तो भी तरा जा सकता है। 'सूत्र अनुसार विचारी बोलुं, सुगुरु तथाविध न मिले;
****** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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