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प्रवचन की लाक्षणिक मुद्रा, वडवाण, वि.सं. २०४७
६-१०-१९९९, बुधवार
आ. व. १२ (प्रातः)
. आनन्द है, इस समय हम भगवान के वचनों का साथ मिलकर स्वाध्याय कर रहे हैं ।
जिन वचन हमें आज तक नहीं मिले । मिले होंगे तो फले नहीं होंगे । जिन-वचनों के प्रति आदर जग जाये तो काम हो जाये । देखो, 'अजितशान्ति' क्या कहती है ?
जइ इच्छह परम-पयं अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे,
ता तेलुक्कुद्धरणे,
जिणवयणे आयरं कुणह । यदि आप मोक्ष या सर्वव्यापी कीर्ति चाहते हों, तो तीन लोक के उद्धारक जिन वचनों का सम्मान करो ।
- नवकार में क्या शक्ति है ? नवकार गिना तो आप वज्र के पिंजरे में बैठ गये । हो गया काम । अब किसी का भी भय नहीं ।
- जिन वचन हृदय में भावित हों वह स्तुति-स्तोत्र का फल है।
३५६ ****************************** कहे कर