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क्रियाओं के पालन द्वारा होती है, क्योंकि इस समय हमारे गुण क्षायोपशमिक भाव के हैं ।
जिस दिन कमाई नहीं हो, उस दिन को व्यापारी बांझ मानता है, उसी प्रकार जिस दिन शुभ भावों की, गुणों की कमाई न हो उस दिन को आप बांझ गिनें ।
'स्व- परात्मबोधः' यह भक्ति की शोभा है ।
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'स्व' एवं 'पर' अर्थात् क्या ?
'स्व' अर्थात् मैं और 'पर' अर्थात् तू ? मात्र परिवारजन ? नहीं, 'स्व' अर्थात् आत्मा और 'पर' अर्थात् दूसरी पूरी दुनिया, जड़
- चेतन सब ।
जड़-चेतन का सच्चा बोध तब ही माना जाता है जब सब के साथ समुचित व्यवहार हो । यही करुणा है, यही अष्टप्रवचन माता हैं । तीर्थंकरों की एवं सम्पूर्ण संसार की माता एक ही है
I 'करुणा' !
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✿ कर्म के तीन प्रकार है - द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म । द्रव्यकर्म है कार्मण वर्गणा । भावकर्म है राग-द्वेष और नोकर्म शरीर - इन्द्रियों हैं । इन तीनों कर्मों से मुक्ति प्राप्त करनी है । ✿ विरतिधरों में व्यक्तरूप से योग होता है । सम्यग्दृष्टि आदि में योग का बीज होता है । इसीलिए योग के सच्चे अधिकारी विरतिधर माने गये हैं ।
+ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । हमारा आत्म- द्रव्य कैसा है ? गुण- पर्याय का खजाना है ।
✿ प्रथम माता : प्रीतियोग प्रदान करती है । दूसरी माता : भक्तियोग प्रदान करती है ।
तीसरी माता : वचनयोग प्रदान करती है । वचन अर्थात्
आज्ञापालन ।
चौथी माता : असंगयोग प्रदान करती है । असंग अर्थात् समाधि ।
'मुक्तिं गतोपीश ! विशुद्धचित्ते । गुणाधिरोपेण ममासि साक्षात् । भानुर्दवीयानपि दर्पणेंऽशु सङ्गान्न किं द्योतयते गृहान्तः ? मुक्ति गयो तोय विशुद्धचित्ते, गुणोवडे तुं अहिंया ज भासे; कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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