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११ दीक्षा प्रसंग, भुरु वि.सं. २०२८, माघ शु. १४., दि.२९-१-१९७२
८-१०-१९९९, शुक्रवार
आ. व. १४ (दोपहर)
- नमस्कार चाहे सेवक ने किया, परन्तु गिना जायेगा नमस्करणीय का । यदि नमस्करणीय नहीं हो तो नमस्कार किसको होता ? नमस्करणीय का यह भी एक उपकार है ।
सामायिक का अध्यवसाय उत्पन्न करानेवाले अरिहंत हैं । सम्पूर्ण जगत् में शुभ अध्यवसाय उत्पन्न कराने का उत्तरदायित्व अरिहंतों ने ही लिया है, ऐसा कहें तो भी चलेगा ।
- महेन्द्रभाई ने परिवार की ओर से आकर विनती की कि मुझे ऐसा अनुष्ठान कराना है। हमने स्वीकृति दे दी । पहले भी ऐसा अनुष्ठान कराया हुआ है । हमारे पूर्व परिचित हैं ।
भूमि का भी प्रभाव होता है जहां निर्विघ्न कार्य सम्पन्न होते हैं । क्या सुरत या मुंबई में ऐसा कार्य हो सकता था ? क्या वहां ऐसा शान्त वातावरण मिलता ?
मद्रास अंजनशलाका में भोजन, महोत्सव, विधि-विधान, स्टेज प्रोग्राम, मन्दिर आदि सब अलग अलग स्थान में था । बराबर जमता नहीं । उदारता के बिना ऐसे अनुष्ठान सुशोभित नहीं होते । पुनः पुनः ऐसे अनुष्ठान कराते रहो, दूसरों को भी ऐसी प्रेरणा
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे