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है ?' विनीत को शिक्षा देने से, टकोर करने से वह प्रसन्न होता है, अश्रद्धालु-अविनीत को दुःख होता है ।
. भीख मांग कर खाना संसार में निकृष्टतम धंधा है । यदि हम यहां संयमयोग का पालन न करें तो भिखारी से भी बदतर हो जायेंगे । भिखारी तो फिर भी नम्र होता है, यहां तो नम्रता भी गई ।
कतिपय श्रावक अविनीत को कहते हैं - 'मैं आचार्य महाराज को कह दूंगा ।' उसका उत्तर होता है - 'कह दीजिये । आचार्य महाराज से में डरता नहीं हूं।'
दशवैकालिक में नववे विनय अध्ययन में सर्वाधिक चार उद्देशा है । उत्तराध्ययन में प्रथम अध्ययन विनय के लिए है । इससे विनयगुण की महिमा ज्ञात होगी । उसकी गुजराती सज्झाय भी हैं । बड़ी उम्र के साधुओं को हमारे वयोवृद्ध व्यक्ति सज्झाय सिखाते - "विनय करजो रे चेला... !' आदि ।
वि. संवत् २०३६में पालीताना में विनय के सम्बन्ध में जहांजहां से कुछ मिला उसे एकत्रित करने का प्रयत्न किया था ।
जिस प्रकार असाध्य रोगी को वैद्य छोड़ देता है, उस प्रकार गुरु को चाहिये कि वह अविनीत को छोड़ दे । असाध्य रोगी का केस यदि हाथ में लिया जाये तो वैद्य को अपयश प्राप्त होता है, रोगी भी परेशान होता है । उसका त्याग करने में ही भलाई
दीक्षा प्रदान करना अर्थात् जीव के कर्मरूपी रोग की चिकित्सा करना । गुरु वैद्य है । शिष्य रोगी है । जिसे भव-रोग दूर करने की इच्छा हो उसे ही दीक्षा देनी चाहिये । जो स्वयं को रोगी ही नहीं मानता, उसकी चिकित्सा कैसे हो सकती है ?
प्रश्न : इस जैन-शासन में तो कुछ भी असाध्य नहीं होना चाहिये । यहां यदि असाध्य होगा तो जीव जायेगा कहां ?
उत्तर : आपकी बात पूर्णतः सत्य है । जिन-शासन के लिए कोई असाध्य नहीं है, परन्तु उसके प्रयोग के लिए तो योग्यता होनी चाहिये न ? स्वयं तीर्थंकर भी अभव्य या दुर्भव्य को प्रतिबोध नहीं देते । देशना में भी वे 'हे भव्यों !' ही कहते हैं । चाहे
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