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शिष्य-गण के साथ पूज्यश्री, सरेन्दनगर, दि.
२-९-१९९९, गुरुवार
भा. व. ७
परमात्मा ने भूमिका के भेद से साधु धर्म एवं श्रावक धर्म दो प्रकार के धर्म बताये हैं, क्योंकि जीवों की भूमिका वैसी होती है । दृढ मनोबली साधु एवं हीन मनोबली श्रावक बनते हैं ।
साधु धर्म अर्थात् भगवान की आज्ञा का पूर्ण रूपेण पालन ।
श्रावकत्व अर्थात् भगवान की आज्ञा का अपूर्ण परन्तु श्रद्धामय पालन ।
- अभी भगवती में भगवान के लिए विशेषण आया - 'उप्पन्ननाणदंसणे' उत्पन्न केवलज्ञानवाले लिखा, परन्तु 'नाणदंसणधरे' नहीं लिखा - वह यह बताता है कि केवलज्ञान उत्पन्न करना पड़ता है, जो कोई भी जीव कर सकता है । अन्य दर्शनों की तरह यहां अनादिकाल से ज्ञान नहीं है, यहां उत्पन्न हुआ हैं ।
बचपन में मुझ में अध्यात्म के प्रति रुचि थी, परन्तु यह पता नहीं था कि कौनसा सच्चा अध्यात्म है ओर कौनसा गलत है ? परन्तु पुन्ययोग से मुझे प्रथम से ही भक्ति पसन्द थी, मानो भगवान निरन्तर मार्ग-दर्शन करते रहे हों ।
किसी ने मुझे गृहस्थ जीवन में (खेरागढ में) कानजी की कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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