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- सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवनगुरु, जाणुं तुम गुण ग्रामजी । बीजुं कांई न मांगुं स्वामी, एहि ज छे मुज कामजी ॥ ___ 'भगवन् ! हे तीन लोक के नाथ ! आपके गुणों का वैभव मैं जानता हूं । अन्य कुछ भी मांगता नहीं हूं । बस, मुझे इन गुणों की ही आवश्यकता है । इनसे ही मुझे काम है ।
पू. देवचंद्रजी महाराज की यह प्रार्थना, हमारी प्रार्थना बन जाये तो कितना अच्छा हो ? _ 'तेरा मैं प्रेष्य, दास, सेवक, किंकर हूं । आप केवल 'हां' कहो तो पर्याप्त है ।' पूज्य हेमचन्द्रसूरिजी की यह प्रार्थना बताती है कि भगवान का सच्चा भक्त कैसा होता है ?
. प्रश्न : किसी स्थान पर आठ करोड़, आठ लाख, आठ हजार, आठसौ आठ नवकार गिनें तो तीसरे भव में मोक्ष मिलता है । किसी स्थान पर नवकार की संख्या भिन्न-भिन्न आती हैं तो इसमें सत्य क्या है ?
उत्तर : जिसका जितना खुराक होता है, उसे उतना दिया जाता है। किसी का खुराक दस रोटी होता है तो किसी का खुराक दो रोटी । मूल बात पेट भरने की है । मूल बात तृप्ति की है। जितने नवकारों से आपका कल्याण हो वे सब स्वीकार्य हैं । इसमें संख्या का कोई आग्रह नहीं है । एकाध नवकार से वह सांप धरणेन्द्र बन गया था । कहां वह नौ लाख नवकार गिनने गया था ?
सब की कक्षा भिन्न-भिन्न, उस प्रकार उनके लिए नवकार की संख्या भी भिन्न भिन्न होगी ।
'कडं कलापूर्णसूरिए' नकल एक प्राप्त थई छे. श्रुतभक्तिनी खूब खूब अनुमोदना.
- आचार्यश्री कल्याणसागरसूरि
नारणपुरा, अमदावाद.
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***** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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