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मैं अर्थात् शरीर नहीं, परन्तु आत्मा ।
मैं अर्थात् अरिहंत का सेवक । अरिहंत का परिवार (गुणसमृद्धि) मेरा ।
. पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. ज्ञानसार से पूर्व योगशास्त्र के चार प्रकाश कराते थे । साधना सदा क्रमशः ही हो सकती है । योगशास्त्र के चार प्रकाश व्यवहारप्रधान है । ज्ञानसार निश्चयप्रधान है । व्यवहार दक्ष बनने के बाद ही निश्चयप्रधान बना जा सकता है । तालाब में तैरना जानने के बाद ही समुद्र में तैरने के लिए कूदा जा सकता है । तालाब व्यवहार है । समुद्र निश्चय है ।
आप शिक्षा, धंधे के लिए तो अपने सन्तानों का ध्यान रखते है, परन्तु कभी इसकी चिन्ता रखी है कि वे दुर्गति में न जायें ? मुझे मेरे मामा पास बिठाकर सामायिक कराते, भक्तामर याद कराते । आप अपनी सन्तानों के लिए कितना समय देते हैं ?
महेन्द्रभाई को ऐसा अनुष्ठान कराने की इच्छा क्यों हुई ? हृदय में यह विचार भी था कि मेरा परिवार - स्वजन आदि धर्म-मार्ग की ओर सन्मुख हों ।
• चार माताओं में सर्व प्रथम ज्ञानमाता - वर्णमाता । अन्तिम ध्यानमाता - त्रिपदी । नींव में वर्णमाता चाहिये ।
शिखर पर ध्यानमाता है । ज्ञान से प्रारम्भ हुई साधना ध्यान में पूर्णता प्राप्त करती है ।
. चारसौ आराधकों में प्रथम नम्बर मैं हिम्मतभाई को देता हूं । कोई अप्रसन्न मत होना । पू.पं. भद्रंकरविजयजी के बाद भी उन्होंने हमारा साथ नहीं छोड़ा ! वे प्रत्येक चातुर्मास (वर्षावास) में आने कि लिये तैयार । वे हमारे पास बैठते है, इतना ही नहीं । वे अन्य मुनियों के पास भी बैठते है । वे हमारे पास आते हैं इसलिये मैं यह नहीं कहता, परन्तु उनमें योग्यता विकसी हुई है, अतः यह कहता हूं ।
. ज्ञान शायद प्रयत्न साध्य है, परन्तु ध्यान एवं समाधि कृपासाध्य है । प्रथम हमारी भूमिका तैयार होती है । उसके बाद ही कृपा का अवतरण हो सकता है। कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ३४१