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सर्वाधिक दुःखी कौन है ? भगवती में प्रश्न है ।
उत्तर में नरक के जीव या निगोद के जीव नहीं, परन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कहे हैं । वे अपने स्वयं के दुःख से दुःखी नही, परन्तु दूसरों के दुःख से दुःखी होते हैं । अपने दुःख से तो सारा संसार दुःखी है।
दूसरे का दुःख अपना लगे तब समझें कि सम्यग्दर्शन आया है ।
यहां के जीवों की उपेक्षा करके हम किस बल के आधार पर सिद्धशिला की अपेक्षा रखते हैं ?
शशिकान्तभाई : भगवान की इतनी उत्तम जीवनशैली होने पर भी जगत् के जीव क्यों स्वीकार नहीं करते ?
पूज्य श्री : कारागार (जेल)में रहने वालों को पूछो ।
हजारों मनुष्यों को मंत्रमुग्ध कर देनेवाले प्रवचन देने पर भी हम स्वयं स्वीकार नहीं कर सकते, तो फिर दूसरों की क्या बात करें ?
चारित्रावरणीय कर्म भीतर बैठा है, वह स्वीकार करने नहीं देता । पं. भद्रंकरविजयजी मिले तो भी आप यहां क्यों नहीं आ सके ? सोचना ।
मुझे भी दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व ऐसे प्रश्न तीन-चार वर्ष रुकावट करते रहे, परन्तु मैं आपको ठीक कहता हूं कि आपके जैसे दुःख, परिषह यहां नहीं है ।
जेल में तो दुःख ही होंगे न ?
. 'वीतराग स्तोत्र' के प्रथम प्रकाश में 'भवेयं तस्य किंकरः' कहा है। बीसवे प्रकाश में 'तव प्रेष्योऽस्मि' कहा है। यहां दासत्व की पराकाष्ठा प्रतीत होती है ।
१. प्रेष्यः स्वामिना यत्र प्रेष्यते तत्र यः गच्छति स प्रेष्यः । स्वामी जहां भेजे वहां जाय, वह प्रेष्य कहलाता है । प्रेष्य, दास, सेवक, किंकर - इन चारों के अर्थ में फरक है ।
आप तैयार हैं ? महाविदेह के लिए तैयार हो जाओगे, परन्तु क्या नरक में जाने के लिए तैयार होओगे ? अगर भगवान वहां
कह
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