________________
भगवान ने केवल भूली हुई इस बात को प्रकट की । भगवान ऋषभदेव इस जगत् के सर्वप्रथम शिक्षक हैं।
__ यदि उन्होंने सभ्यता, शिक्षा एवं संस्कृति की स्थापना नहीं की होती तो मानवजाति आज जंगली ही होती । मानव को सभ्य बनानेवाले आदिनाथजी ही थे । _अक्षरों में से ही समस्त ज्ञान उत्पन्न होता है। कोई भी धर्मशास्त्र, कोई भी धर्मदेशना या किसी भी प्रकार की पुस्तक इन अक्षरों के माध्यम से ही प्रकट होती है । इसीलिए वर्णमाला को ज्ञान की माता कहा है ।
वर्णमाता का उपासक ही नवकारमाता को प्राप्त कर सकता है, गिन सकता है, प्राप्त कर सकता है ।
नवकारमाता का उपासक ही अष्टप्रवचन रूप तीसरी धर्ममाता को प्राप्त कर सकता है ।
धर्ममाता को प्राप्त करनेवाला ही त्रिपदीरूप चौथी ध्यानमाता को प्राप्त कर सकता है । अतः 'शोभा नराणां' - इस श्लोक में चार माताओं का यह क्रम बताया है।
तीर्थंकर भी केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद केवलज्ञान के द्वारा धर्मदेशना नहीं देते, श्रुतज्ञानरूप इस वर्णमाता से धर्मदेशना देते हैं । मैं या आप जो बोलते हैं, वह धर्ममाता का प्रभाव है।
. क्रोध के जय बिना, उपशम की प्राप्ति के बिना चौथी ध्यानमाता नहीं मिल सकती । परमात्मा का अनुग्रह होगा कि मेरी माता का नाम ही क्षमा था । केवल नाम ही नहीं, वे क्षमा की मूर्त रूप थीं । मैंने उनमें कभी क्रोध नहीं देखा ।
नाम के अनुसार यदि गुण नहीं आयें तो हम केवल नामधारी हैं, गुणधारी नहीं ।
- प्रथम माता की (वर्णमाता की) उपासना के लिए हेमचन्द्रसूरि ने योगशास्त्र के आठवे प्रकाश में ध्यानविधि बताई है।
नाभि में १६ पंखुडियोंवाला कमल, 'अ' से 'अः' तक के अक्षरों को वहां स्थापित करें । हृदय में २४ (मध्य में कणिका सहित) पंखुडियां का कमल, 'क' से 'भ' तक चौवीस अक्षर चौवीस पंखुड़ियों में स्थापित करे । मध्य की कर्णिका में 'म' की स्थापना करें ।
३३२
******************************
क