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सब उस पर घटित करता हूं, यह बात नहीं है । यही मार्ग है। मैंने महापुरुषों को पूछ कर, खोजकर, निश्चित किया है।
- साध्य चाहे सामायिक है, परन्तु छः आवश्यकों में सरल साधना नाम-जाप (चउविसत्थो) है ।
"यहां साध्य तो सामायिक है, समता है, तो बीच में नामस्तव (चउविसत्थो) क्यों लाये ?" नियुक्ति में उठाया गया ऐसा प्रश्न प्रभु-नाम-कीर्तन की महिमा बताता है ।
तीर्थंकरों के नाम-गोत्र का श्रवण भी अत्यन्त फलदायी है।
प्रभु के कितने नाम हैं ? हजारों नाम हैं । शक्रस्तव पढो । जितने गुण उतने नाम हैं । यदि गुण नहीं गिने जा सकें तो नाम भी नहीं गिने जा सकते हैं ।
'प्रभु तेरे नाम हैं हजार, किस नाम से लिखनी कंकोत्री' भक्त थोड़ी उलझन में पड़ जाता है ।
मद्रास आदि में मारवाड़ी समाज में प्रथम पत्रिका आज भी पालीताना, सिद्धाचल, आदिनाथ के नाम पर लिखी जाती है ।
(मद्रास वाले माणकचंदभाई -
मद्रास प्रतिष्ठा के बाद अनगिनत लोग प्रभु के दर्शनार्थ आये । अजैन लोग भी आये, रात भर प्रातः तीन बजे तक लाइन चालु रही)
प्रभु-नाम कीर्तन से प्रभु के साथ प्रणिधान होता है। इसीलिए कहा जा सकता है कि 'लोगस्स' समाधि सूत्र है। इसीलिए इसके फल स्वरूप अन्त में समाधि की याचना की गई है। 'समाहिवरमुत्तमं दितु ।' रायपसेणिय, चउसरणपयन्ना, उत्तराध्ययन में कहा है कि इससे दर्शनाचार की (चतुर्विंशति स्तव से) विशुद्धि होती है, सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, सम्यग्दर्शन हो तो विशुद्ध बनता है। सम्यग्दर्शन शायद न हो तो भी चित्त की प्रसन्नता तो होती ही है ।
चउविसत्थो के अर्थाधिकार में प्रभु-गुणों का कीर्तन करने का कहा हैं, क्योंकि प्रभु सब से गुणाधिक है । स्तुति गुणाधिक की ही होती है । उनके समान भी जगत् में अन्य कोई नहीं है तो उनसे बढ कर कौन होगा ?
प्रभु भले ही गुणाढ्य हो, परन्तु अन्य को क्या लाभ ? मनुष्य चाहे धनाढ्य हो, परन्तु अन्य को क्या लाभ ? धनाढ्य व्यक्ति यदि (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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